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प्रिय प्रवास / अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’ / दशम सर्ग / पृष्ठ - २

मृदुल-कुसुम-सा है औ तुने तूल-सा है।
नव-किसलय-सा है स्नेह के वत्स-सा है।
सदय-हृदय ऊधो श्याम का है बड़ा ही।
अहह हृदय माँ-सा स्निग्ध तो भी नहीं है॥21॥

कर निकर सुधा से सिक्त राका शशी के।
प्रतपित कितने ही लोक को हैं बनाते।
विधि-वश दुख-दाई काल के कौशलों से।
कलुषित बनती है स्वच्छ-पीयूष-धारा॥22॥

मन्दाक्रान्ता छन्द

मेरे प्यारे स-कुशल सुखी और सानन्द तो हैं?।
कोई चिन्ता मलिन उनको तो नहीं है बनाती?।
ऊधो छाती बदन पर है म्लानता भी नहीं तो?।
जी जाती हैं हृदयतल में तो नहीं वेदनायें?॥23॥

मीठे-मेवे मृदुल नवनी और पक्वान्न नाना।
उत्कण्ठा के सहित सुत को कौन होगी खिलाती।
प्रात: पीता सु-पय कजरी गाय का चाव से था।
हा! पाता है न अब उसको प्राण-प्यारा हमारा॥24॥

संकोची है अति सरल है धीर है लाल मेरा।
होती लज्जा अमित उसको माँगने में सदा थी।
जैसे लेके स-रुचि सुत को अंक में मैं खिलाती।
हा! वैसी ही अब नित खिला कौन माता सकेगी॥25॥

मैं थी सारा-दिवस मुख को देखते ही बिताती।
हो जाती थी व्यथित उसको म्लान जो देखती थी।
हा! ऐसे ही अब वदन को देखती कौन होगी।
ऊधो माता-सदृश ममता अन्य की है न होती॥26॥

खाने पीने शयन करने आदि की एक-वेला।
जो जाती थी कुछ टल कभी तो बड़ा खेद होता।
ऊधो ऐसी दुखित उसके हेतु क्यों अन्य होगी।
माता की सी अवनितल में है अ-माता न होती॥27॥

जो पाती हूँ कुँवर-मुख के जोग मैं भोग-प्यारा।
तो होती हैं हृदय-तल में वेदनायें-बड़ी ही।
जो कोई भी सु-फल सुत के योग्य मैं देखती हूँ।
हो जाती हूँ परम-व्यथिता, हूँ महादग्ध होती॥28॥

जो लाती थीं विविध-रँग के मुग्धकारी खिलौने।
वे आती हैं सदन अब भी कामना में पगी सी।
हा! जाती हैं पलट जब वे हो निराशा-निमग्ना।
तो उन्मत्त-सदृश पथ की ओर मैं देखती हूँ॥29॥

आते लीला निपुण-नट हैं आज भी बाँध आशा।
कोई यों भी न अब उनके खेल को देखता है।
प्यारे होते मुदित जितने कौतुकों से सदा ही।
वे ऑंखों में विषम-दव हैं दर्शकों के लगाते॥30॥

प्यारा खाता रुचिर नवनी को बड़े चाव से था।
खाते-खाते पुलक पड़ता नाचता-कूदता था।
ए बातें हैं सरस नवनी देखते याद आती।
हो जाता है मधुरतर औ स्निग्ध भी दग्धकारी॥31॥

हा! जो वंशी सरस रव से विश्व को मोहती थी।
सो आले में मलिन वन औ मूक हो के पड़ी है।
जो छिद्रों से अमृत बरसा मूर्ति थी मुग्धता की।
सो उन्मत्त परम-विकला उन्मना है बनाती॥32॥

प्यारे ऊधो सुरत करता लाल मेरी कभी है?।­
क्या होता है न अब उसको ध्यान बूढ़े-पिता का।
रो, रो हो-हो विकल अपने वार जो हैं बिताते।
हा! वे सीधे सरल-शिशु हैं क्या नहीं याद आते॥33॥

कैसे भूलीं सरस-खनि सी प्रीति की गोपिकायें।
कैसे भूले सुहृदपन के सेतु से गोप-ग्वाले।
शान्ता धीरा 'मधुरहृदया प्रेम-रूपा रसज्ञा।
कैसे भूली प्रणय-प्रतिमा-राधिका मोहमग्ना॥34॥

कैसे वृन्दा-विपिन बिसरा क्यों लता-वेलि भूली।
कैसे जी से उतर ब्रज की कुंज-पुंजे गई हैं।
कैसे फूले विपुल-फल से नम्र भूजात भूले।
कैसे भूला विकच-तरु सो अर्कजा-कूल वाला॥35॥

सोती-सोती चिहुँक कर जो श्याम को है बुलाती।
ऊधो मेरी यह सदन की शारिका कान्त-कण्ठा।
पाला-पोसा प्रति-दिन जिसे श्याम ने प्यार से है।
हा! कैसे सो हृदय-तल से दूर यों हो गई है॥36॥

जा कुंजों में प्रति-दिन जिन्हें चाव से था चराया।
जो प्यारी थीं ब्रज-अवनि के लाडिले को सदा ही।
खिन्ना, दीना, विकल वन में आज जो घूमती हैं।
ऊधो कैसे हृदय-धन को हाय! वे धेनू भूलीं॥37॥

ऐसा प्राय: अब तक मुझे नित्य ही है जनाता।
गो गोपों के सहित वन से सद्म है श्याम आता।
यों ही आ के हृदय-तल को बेधता मोह लेता।
मीठा-वंशी-सरस-रव है कान से गूँज जाता॥38॥

रोते-रोते तनिक लग जो ऑंख जाती कभी है।
हा! त्योंही मैं दृग-युगल को चौंक के खोलती हूँ।
प्राय: ऐसा प्रति-रजनि में ध्यान होता मुझे है।
जैसे आ के सुअन मुझको प्यार से है जगाता॥39॥

ऐसा ऊधो प्रति-दिन कई बार है ज्ञात होता।
कोई यों है कथन करता लाल आया तुम्हारा।
भ्रान्ता सी मैं अब तक गई द्वार पै बार लाखों।
हा! ऑंखों से न वह बिछुड़ी-श्यामली-मुर्ति देखी॥40॥