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प्रिय प्रवास / अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’ / दशम सर्ग / पृष्ठ - ३

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फूले-अंभोज सम दृग से मोहते मानसों को।
प्यारे-प्यारे वचन कहते खेलते मोद देते।
ऊधो ऐसी अनुमिति सदा हाय! होती मुझे है।
जैसे आता निकल अब ही लाल है मंदिरों से॥41॥

आ के मेरे निकट नवनी लालची लाल मेरा।
लीलायें था विविध करता धूम भी था मचाता।
ऊधो बातें न यक पल भी हाय! वे भूलती हैं।
हा! छा जाता दृग-युगल में आज भी सो समाँ है॥42॥

मैं हाथों से कुटिल-अलकें लाल की थी बनाती।
पुष्पों को थी श्रुति-युगल के कुण्डलों में सजाती।
मुक्ताओं को शिर मुकुट में मुग्ध हो थी लगाती।
पीछे शोभा निरख मुख की थी न फूले समाती॥43॥

मैं प्राय: ले कुसुमकलिका चाव से थी बनाती।
शोभा-वाले विविध गजरे क्रीट औ कुण्डलों को।
पीछे हो हो सुखित उनको श्याम को थी पिन्हाती।
औ उत्फुल्ला ग्रथित-कलिका तुल्य थी पूर्ण होती॥44॥

पैन्हे-प्यारे-वसन कितने दिव्य-आभूषणों को।
प्यारी-वाणी विहँस कहते पूर्ण-उत्फुल्ल होते।
शोभा-शाली-सुअन जब था खेलता मन्दिरों में।
तो पा जाती अमरपुर की सर्व सम्पत्तिा मैं थी॥45॥

होता राका-शशि उदय था फूलता पद्म भी था।
प्यारी-धारा उमग बहती चारु-पीयूष की थी।
मेरा प्यारा तनय जब था, गेह में नित्य ही तो।
वंशी-द्वारा 'मधुर-तर था स्वर्ग-संगीत होता॥46॥

ऊधो मेरे दिवस अब वे हाय! क्या हो गये हैं।
हा! यों मेरे सुख-सदना को कौन क्यों है गिराता।
वैसे प्यारे-दिवस अब मैं क्या नहीं पा सकूँगी।
हा! क्या मेरी न अब दुख की यामिनी दूर होगी॥47॥

ऊधो मेरा हृदय-तल था एक उद्यान-न्यारा।
शोभा देती अमित उसमें कल्पना-क्यारियाँ थीं।
न्यारे-प्यारे-कुसुम कितने भाव के थे अनेकों।
उत्साहों के विपुल-विटपी थे महा मुग्धकारी॥48॥

सच्चिन्ता की सरस-लहरी-संकुला-वापिका थी।
नाना चाहें कलित-कलियाँ थीं लतायें उमंगें।
धीरे-धीरे 'मधुर हिलती वासना-वेलियाँ थीं।
सद्वांछा के विहग उसके मंजु-भाषी बड़े थे॥49॥

भोला-भाला मुख सुत-वधू-भाविनी का सलोना।
प्राय: होता प्रकट उसमें फुल्ल-अम्भोज-सा था।
बेटे द्वारा सहज-सुख के लाभ की लालसायें।
हो जाती थीं विकच बहुधा माधवी-पुष्पिता सी॥50॥

प्यारी-आशा-पवन जब थी डोलती स्निग्ध हो के।
तो होती थीं अनुपम-छटा बाग के पादपों की।
हो जाती थीं सकल लतिका-वेलियाँ शोभनीया।
सद्भावों के सुमन बनते थे बड़े सौरभीले॥51॥

राका-स्वामी सरस-सुख की दिव्य-न्यारी-कलायें।
धीरे-धीरे पतित जब थीं स्निग्धता साथ होतीं।
तो आभा में अतुल-छवि में औ मनोहारिता में।
हो जाता सो अधिकतर था नन्दनोद्यान से भी॥52॥

ऐसा प्यारा-रुचिर रस से सिक्त उद्यान मेरा।
मैं होती हूँ व्यथित कहते आज है ध्वंस होता।
सूखे जाते सकल-तरु हैं नष्ट होती लता है।
निष्पुष्पा हो विपुल-मलिना वेलियाँ हो रही हैं॥53॥

प्यारे-पौधो कुसुम-कुल के पुष्प ही हैं न लाते।
भूले जाते विहग अपनी बोलियाँ हैं अनूठी।
हा! जावेगा उजड़ अति ही मंजु-उद्यान मेरा।
जो सींचेगा न घन-तन आ स्नेह-सद्वारि-द्वारा॥54॥

ऊधो आदौ तिमिर-मय था भाग्य-आकाश मेरा।
धीरे-धीरे फिर वह हुआ स्वच्छ सत्कान्ति-शाली।
ज्योतिर्माला-बलित उसमें चन्द्रमा एक न्यारा।
राका श्री ले समुदित हुआ चित्त-उत्फुल्ल-कारी॥55॥

आभा-वाले उस गगन में भाग्य दुर्वृत्तता की।
काली-काली अब फिर घटा है महा-घोर छाई।
हा! ऑंखों से सु-विधु जिससे हो गया दूर मेरा।
ऊधो कैसे यह दुख-मयी मेघ-माला टलेगी॥56॥

फूले-नीले-वनज-दल सा गात का रंग-प्यारा।
मीठी-मीठी मलिन मन की मोदिनी मंजु-बातें।
सोंधो-डूबी-अलक यदि है श्याम की याद आती।
ऊधो मेरे हृदय पर तो साँप है लोट जाता॥57॥

पीड़ा-कारी-करुण-स्वर से हो महा-उन्मना सी।
हा! रो-रो के स-दुख जब यों शारिका पूछती है।
वंशीवाला हृदय-धन सो श्याम मेरा कहाँ है।
तो है मेरे हृदय-तल में शूल सा विध्द होता॥58॥

त्यौहारों को अपर कितने पर्व औ उत्सवों को।
मेरा प्यारा-तनय अति ही भव्य देता बना था।
आते हैं वे ब्रज-अवनि में आज भी किन्तु ऊधो।
दे जाते हैं परम दुख औ वेदना हैं बढ़ाते॥59॥

कैसा-प्यारा जनम दिन था धूम कैसी मची थी।
संस्कारों के समय सुत के रंग कैसा जमा था।
मेरे जी में उदय जब वे दृश्य हैं आज होते।
हो जाती तो प्रबल-दुख से मूर्ति मैं हूँ शिला की॥60॥