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प्रिय प्रवास / अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’ / नवम सर्ग / पृष्ठ - १

शार्दूल-विक्रीड़ित छन्द

एकाकी ब्रजदेव एक दिन थे बैठे हुए गेह में।
उत्सन्ना ब्रजभूमि के स्मरण से उद्विग्नता थी बड़ी।
ऊधो-संज्ञक-ज्ञान-वृध्द उनके जो एक सन्मित्र थे।
वे आये इस काल ही सदन में आनन्द में मग्न से॥1॥

आते ही मुख-म्लान देख हरि का वे दीर्घ-उत्कण्ठ हो।
बोले क्यों इतने मलीन प्रभु हैं? है वेदना कौन सी।
फूले-पुष्प-विमोहिनी-विचकता क्या हो गई आपकी।
क्यों है नीरसता प्रसार करती उत्फुल्ल-अंभोज में॥2॥

बोले वारिद-गात पास बिठला सम्मान से बन्धु को।
प्यारे सर्व-विधन ही नियति का व्यामोह से है भरा।
मेरे जीवन का प्रवाह पहले अत्यन्त-उन्मुक्त था।
पाता हूँ अब मैं नितान्त उसको आबद्ध कर्तव्य में॥3॥

शोभा-संभ्रम-शालिनी-ब्रज-धार प्रेमास्पदा-गोपिका।
माता-प्रीतिमयी प्रतीति-प्रतिमा, वात्सल्य-धाता-पिता।
प्यारे गोप-कुमार, प्रेम-मणि के पाथोधि से गोप वे।
भूले हैं न, सदैव याद उनकी देती व्यथा है हमें॥4॥

जी में बात अनेक बार यह थी मेरे उठी मैं चलूँ।
प्यारी-भावमयी सु-भूमि ब्रज में दो ही दिनों के लिए।
बीते मास कई परन्तु अब भी इच्छा न पूरी हुई।
नाना कार्य-कलाप की जटिलता होती गई बाधिका॥5॥

पेचीले नव राजनीति पचड़े जो वृध्दि हैं पा रहे।
यात्रा में ब्रज-भूमि की अहह वे हैं विघ्नकारी बड़े।
आते वासर हैं नवीन जितने लाते नये प्रश्न हैं।
होता है उनका दुरूहपन भी व्याघातकारी महा॥6॥

प्राणी है यह सोचता समझता मैं पूर्ण स्वाधीन हूँ।
इच्छा के अनुकूल कार्य्य सब मैं हूँ साध लेता सदा।
ज्ञाता हैं कहते मनुष्य वश में है काल कर्म्मादि के।
होती है घटना-प्रवाह-पतित-स्वाधीनता यंत्रिता॥7॥

देखो यद्यपि है अपार, ब्रज के प्रस्थान की कामना।
होता मैं तब भी निरस्त नित हूँ व्यापी द्विधा में पड़ा।
ऊधो दग्ध वियोग से ब्रज-धरा है हो रही नित्यश:।
जाओ सिक्त करो उसे सदय हो आमूल ज्ञानाम्बु से॥8॥

मेरे हो तुम बंधु विज्ञ-वर हो आनन्द की मुर्ति हो।
क्यों मैं जा ब्रज में सका न अब भी हो जानते भी इसे।
कैसी हैं अनुरागिनी हृदय से माता, पिता गोपिका।
प्यारे है यह भी छिपी न तुमसे जाओ अत: प्रात ही॥9॥

जैसे हो लघु वेदना हृदय की औ दूर होवे व्यथा।
पावें शान्ति समस्त लोग न जलें मेरे वियोगाग्नि में।
ऐसे ही वर-ज्ञान तात ब्रज को देना बताना क्रिया।
माता का स-विशेष तोष करना और वृध्द-गोपेश का॥10॥

जो राधा वृष-भानु-भूप-तनया स्वर्गीय दिव्यांगना।
शोभा है ब्रज प्रान्त की अवनि की स्त्री-जाति की वंशकी।
होगी हा! वह मग्नभूत अति ही मेरे वियोगाब्धिा में।
जो हो संभव तात पोत बन के तो त्राण देना उसे॥11॥

यों ही आत्म प्रसंग श्याम-वपु ने प्यारे सखा से कहा।
मर्य्यादा व्यवहार आदि ब्रज का पूरा बताया उन्हें।
ऊधो ने सब को स-आदर सुना स्वीकार जाना किया।
पीछे हो करके बिदा सुहृद से आये निजागार वे॥12॥

प्रात:काल अपूर्व-यान मँगवा औ साथ ले सूत को।
ऊधो गोकुल को चले सदय हो स्नेहाम्बु से भींगते।
वे आये जिस काल कान्त-ब्रज में देखा महा-मुग्ध हो।
श्री वृन्दावन की मनोज्ञ-मधुरा श्यामायमाना-मही॥13॥

चूड़ायें जिसकी प्रशान्त-नभ में थीं देखती दूर से।
ऊधो को सु-पयोद के पटल सी सधर्म की राशि सी।
सो गोवर्धन श्रेष्ठ-शैल अधुना था सामने दृष्टि के।
सत्पुष्पों सुफलों प्रशंसित द्रुमों से दिव्य सर्वाङ्ग हो॥14॥

ऊँचा शीश सहर्ष शैल करके था देखता व्योम को।
या होता अति ही स-गर्व वह था सर्वोच्चता दर्प से।
या वार्ता यह था प्रसिध्द करता सामोद संसार में।
मैं हूँ सुन्दर मान दण्ड ब्रज की शोभा-मयी-भूमि का॥15॥

पुष्पों से परिशोभमान बहुश: जो वृक्ष अंकस्थ थे।
वे उद्धोषित थे सदर्प करते उत्फुल्लता मेरु की।
या ऊँचा करके स-पुष्प कर को फूले द्रुमों व्याज से।
श्री-पद्मा-पति के सरोज-पग को शैलेश था पूजता॥16॥

नाना-निर्झर हो प्रसूत गिरि के संसिक्त उत्संग से।
हो हो शब्दित थे सवेग गिरते अत्यन्त-सौंदर्य्य से।
जो छीटें उड़तीं अनन्त पथ में थीं दृष्टि को मोहती।
शोभा थी अति ही अपूर्व उनके उत्थान की, 'पात' की॥17॥

प्यारा था शुचि था प्रवाह उनका सद्वारि-सम्पन्न हो।
जो प्राय: बहता विचित्र-गति के गम्य-स्थलों-मध्य था।
सीधे ही वह था कहीं विहरता होता कहीं वक्र था।
नाना-प्रस्तर खंड साथ टकरा, था घूम जाता कहीं॥18॥

होता निर्झर का प्रवाह जब था सर्वत्ता उद्भिन्न हो।
तो होती उसमें अपूर्व-ध्वनि थी उन्मादिनी कर्ण की।
मानो यों वह था सहर्ष कहता सत्कीर्ति शैलेश की।
या गाता गुण था अचिन्त्य-गति का सानन्द सत्कण्ठ से॥19॥

गर्तों में गिरि कन्दरा निचय में, जो वारि था दीखता।
सो निर्जीव, मलीन, तेजहत था, उच्छ्वास से शून्य था।
पानी निर्झर का समुज्ज्वल तथा उल्लास की मूर्ति था।
देता था गति-शील-वस्तु गरिमा यों प्राणियों को बता॥20॥