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प्रिय प्रवास / अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’ / पंचदश सर्ग / पृष्ठ - २

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जूही बोली न कुछ, जतला प्यार बोली चमेली।
मैंने देखा दृग-युगल से रंग भी पाटलों का।
तू बोलेगा सदय बन के ईदृशी है न आशा।
पूरा कोरा निठुरपन के मुर्ति ऐ पुष्प बेला॥21॥

मैं पूछूँगी तदपि तुझसे आज बातें स्वकीया।
तेरा होगा सुयश मुझसे सत्य जो तू कहेगा।
क्यों होते हैं पुरुष कितने, प्यार से शून्य कोरे।
क्यों होता है न उर उनका सिक्त स्नेहाम्बु द्वारा॥22॥

आ के तेरे निकट कुछ भी मोद पाती न मैं हूँ।
तेरी तीखी महँक मुझको कष्टिता है बनाती।
क्यों होती है सुरभि सुखदा माधवी मल्लिका की।
क्यों तेरी है दुखद मुझको पुष्प बेला बता तू॥23॥

तेरी सारे सुमन-चय से श्वेतता उत्तम है।
अच्छा होता अधिक यदि तू सात्तिवकी वृत्ति पाता।
हा! होती है प्रकृति रुचि में अन्यथा कारिता भी।
तेरा एरे निठुर नतुवा साँवला रंग होता॥24॥

नाना पीड़ा निठुर-कर से नित्य मैं पा रही हूँ।
तेरे में भी निठुरपन का भाव पूरा भरा है।
हो-हो खिन्ना परम तुझसे मैं अत: पूछती हूँ।
क्यों देते हैं निठुर जन यों दूसरों को व्यथायें॥25॥

हा! तू बोला न कुछ अब भी तू बड़ा निर्दयी है।
मैं कैसी हूँ विवश तुझसे जो वृथा बोलती हूँ।
खोटे होते दिवस जब हैं भाग्य जो फूटता है।
कोई साथी अवनि-तल में है किसी का न होता॥26॥

जो प्रेमांगी सुमन बन के औ तदाकार हो के।
पीड़ा मेरे हृदय-तल की पाटलों ने न जानी।
तो तू हो के धवल-तन औ कुन्त-आकार-अंगी।
क्यों बोलेगा व्यथित चित की क्यों व्यथा जान लेगा॥27॥

चम्पा तू है विकसित मुखी रूप औ रंगवाली।
पाई जाती सुरभि तुझमें एक सत्पुष्प-सी है।
तो भी तेरे निकट न कभी भूल है भृङ्ग आता।
क्या है ऐसी कसर तुझमें न्यूनता कौन सी है॥28॥

क्या पीड़ा है न कुछ इसकी चित्त के मध्य तेरे।
क्या तू ने है मरम इसका अल्प भी जान पाया।
तू ने की है सुमुखि! अलि का कौन सा दोष ऐसा।
जो तू मेरे सदृश प्रिय के प्रेम से वंचिता है॥29॥

सर्वांगों में सरस-रज औ धूलियों को लपेटे।
आ पुष्पों में स-विधि करती गर्भ-आधन जो है।
जो ज्ञाता है 'मधुर-रस का मंजु जो गूँजता है।
ऐसे प्यारे रसिक-अलि से तू असम्मानिता है॥30॥

जो ऑंखों में 'मधुर-छवि की मूर्ति सी ऑंकता है।
जो हो जाता उदधि उर के हेतु राका-शशी है।
जो वंशी के सरस-स्वर से है सुधा सी बहाता।
ऐसे माधो-विरह-दव से मैं महादग्धिता हूँ॥31॥

मेरी तेरी बहुत मिलती वेदनायें कई हैं।
आ रोऊँ ऐ भगिनि तुझको मैं गले से लगा के।
जो रोती हैं दिवस-रजनी दोष जाने बिना ही।
ऐसी भी हैं अवनि-तल में जन्म लेती अनेकों॥32॥

मैंने देखा अवनि-तल में श्वेत ही रंग ऐसा।
जैसा चाहे जतन करके रंग वैसा उसे दे।
तेरे ऐसी रुचिर-सितता कुन्द मैंने न देखी।
क्या तू मेरे हृदय-तल के रंग में भी रँगेगा॥33॥

क्या है होना विकच इसको पुष्प ही जानते हैं।
तू कैसा है रुचिर लगता पत्तियों-मध्य फूला।
तो भी कैसी व्यथित-कर है सो कली हाय! होती।
हो जाती है विधि-कुमति से म्लान फूले बिना जो॥34॥

मेरे जी की मृदुल-कलिका प्रेम के रंग राती।
म्लाना होती अहह नित है अल्प भी जो न फूली।
क्या देवेगा विकच इसको स्वीय जैसा बना तू।
या हो शोकोपहत इसके तुल्य तू म्लान होगा॥35॥

वे हैं मेरे दिन अब कहाँ स्वीय उत्फुल्लता को।
जो तू मेरे हृदय-तल में अल्प भी ला सकेगा।
हाँ, थोड़ा भी यदि उर मुझे देख तेरा द्रवेगा।
तो तू मेरे मलिन-मन की म्लानता पा सकेगा॥36॥

हो जावेगी प्रथित-मृदुता पुष्प संदिग्ध तेरी।
जो तू होगा व्यथित न किसी कष्टिता की व्यथा से।
कैसे तेरी सुमन-अभिधा साथ ऐ कुन्द होगी।
जो होवेगा न अ-विकच तू म्लान होते चितों से॥37॥

सोने जैसा बरन जिसने गात का है बनाया।
चित्तामोदी सुरभि जिसने केतकी दी तुझे है।
यों काँटों से भरित तुझको क्यों उसी ने किया है।
दी है धूली अलि अवलि की दृष्टि-विध्वंसिनी क्यों॥38॥

कालिन्दी सी कलित-सरिता दर्शनीया-निकुंजें।
प्यारा-वृन्दा-विपिन विटपी चारु न्यारी-लतायें।
शोभावाले-विहग जिसने हैं दिये हा! उसी ने।
कैसे माधो-रहित ब्रज की मेदनी को बनाया॥39॥

क्या थोड़ा भी सजनि!इसका मर्म्म तू पा सकी है।
क्या धाता की प्रकट इससे मूढ़ता है न होती।
कैसा होता जगत सुख का धाम और मुग्धकारी।
निर्माता की मिलित इसमें वामता जो न होती॥40॥