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प्रिय प्रवास / अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’ / पंचदश सर्ग / पृष्ठ - ४

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तदपि इन सबों में ऐंठ देखी बड़ी ही।
लख दुखित-जनों को ए नहीं म्लान होते।
चित व्यथित न होता है किसी की व्यथा से।
बहु भव-जनितों की वृत्ति ही ईदृशी है॥61॥

अयि अलि तुझमें भी सौम्यता हूँ न पाती।
मम दुख सुनता है चित्त दे के नहीं तू।
अति-चपल बड़ा ही ढीठ औ कौतुकी है।
थिर तनक न होता है किसी पुष्प में भी॥62॥

यदि तज करके तू गूँजना धर्य्य-द्वारा।
कुछ समय सुनेगा बात मेरी व्यथा की।
तब अवगत होगा बालिका एक भू में।
विचलित कितनी है प्रेम से वंचिता हो॥63॥

अलि यदि मन दे के भी नहीं तू सुनेगा।
निज दुख तुझसे मैं आज तो भी कहूँगी।
कुछ कह उनसे, है चित्त में मोद होता।
क्षिति पर जिनकी हूँ श्यामली-मुर्ति पाती॥64॥

इस क्षिति-तल में क्या व्योम के अंक में भी।
प्रिय वपु छवि शोभी मेघ जो घूमते हैं।
इकटक पहरों मैं तो उन्हें देखती हूँ।
कह निज मुख द्वारा बात क्या-क्या न जानें॥65॥

मधुकर सुन तेरी श्यामता है न वैसी।
अति-अनुपम जैसी श्याम के गात की है।
पर जब-जब ऑंखें देख लेती तुझे हैं।
तब-तब सुधि आती श्यामली-मूर्ति की है॥66॥

तव तन पर जैसी पीत-आभा लसी है।
प्रियतम कटि में है सोहता वस्त्र वैसा।
गुन-गुन करना औ गूँजना देख तेरा।
रस-मय-मुरली का नाद है याद आता॥67॥

जब विरह विधाता ने सृजा विश्व में था।
तब स्मृति रचने में कौन सी चातुरी थी।
यदि स्मृति विरचा तो क्यों उसे है बनाया।
वपन-पटु कु-पीड़ा बीज प्राणी-उरों में॥68॥

अलि पड़ कर हाथों में इसी प्रेम के ही।
लघु-गुरु कितनी तू यातना भोगता है।
विधि-वश बँधाता है कोष में पंकजों के।
बहु-दुख सहता है विध्द हो कंटकों से॥69॥

पर नित जितनी मैं वेदना पा रही हूँ।
अति लघु उससे है यातना भृङ्ग तेरी।
मम-दुख यदि तेरे गात की श्यामता है।
तब दुख उसकी ही पीतता तुल्य तो है॥70॥

बहु बुध कहते हैं पुष्प के रूप द्वारा।
अपहृत चित होता है अनायास तेरा।
कतिपय-मति-शाली हेतु आसक्तता का।
अनुपम-मधु किम्वा गंध को हैं बताते॥71॥

यदि इन विषयों को रूप गंधदिकों को।
मधुकर हम तेरे मोह का हेतु मानें।
यह अवगत होना चाहिए भृङ्ग तो भी।
दुख-प्रद तुझको, तो तीन ही इन्द्रियाँ हैं॥72॥

पर मुझ अबला की वेदना-दायिनी हा।
समधिक गुण-वाली पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ हैं।
तदुपरि कितनी हैं मानवी-वंचनायें।
विचलित-कर होंगी क्यों न मेरी व्यथायें॥73॥

जब हम व्यथिता हैं ईदृशी तो तुझे क्या।
कुछ सदय न होना चाहिए श्याम-बन्धो।
प्रिय निठुर हुए हैं दूर हो के दृगों से।
मत निठुर बने तू सामने लोचनों के॥74॥

नव-नव-कुसुमों के पास जा मुग्ध हो-हो।
गुन-गुन करता है चाव से बैठता है।
पर कुछ सुनता है तू न मेरी व्यथायें।
मधुकर इतना क्यों हो गया निर्दयी है॥75॥

कब टल सकता था श्याम के टालने से।
मुख पर मँडलाता था स्वयं मत्त हो के।
यक दिन वह था औ एक है आज का भी।
जब भ्रमर न मेरी ओर तू ताकता है॥76॥

कब पर-दुख कोई है कभी बाँट लेता।
सब परिचय-वाले प्यार ही हैं दिखाते।
अहह न इतना भी हो सका तो कहूँगी।
मधुकर यह सारा दोष है श्यामता का॥77॥

द्रुतविलम्बित छन्द

कमल-लोचन क्या कल आ गये।
पलट क्या कु-कपाल-क्रिया गई।
मुरलिका फिर क्यों वन में बजी।
बन रसा तरसा वरसा सुधा॥78॥

किस तपोबल से किस काल में।
सच बता मुरली कल-नादिनी।
अवनि में तुझको इतनी मिली।
मदिरता, मृदुता, मधुमानता॥79॥

चकित है किसको करती नहीं।
अवनि को करती अनुरक्त है।
विलसती तव सुन्दर अंक में।
सरसता, शुचिता, रुचिकारिता॥80॥