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प्रिय प्रवास / अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’ / पंचम सर्ग / पृष्ठ - २

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मन्दाक्रान्ता छन्द

आई बेला हरि-गमन की छा गई खिन्नता सी।
थोड़े ऊँचे नलिनपति हो जा छिपे पादपों में।
आगे सारे स्वजन करके साथ अक्रूर को ले।
धीरे-धीरे सजनक कढ़े सद्म में से मुरारी॥20॥

        आते ऑंसू अति कठिनता से सँभाले दृगों के।
        होती खिन्ना हृदय-तल के सैकड़ों संशयों से।
        थोड़ा पीछे प्रिय तनय के भूरि शोकाभिभूता।
        नाना वामा सहित निकलीं गेह में से यशोदा॥21॥

द्वारे आया ब्रज नृपति को देख यात्रा निमित्त।
भोला-भाला निरख मुखड़ा फूल से लाडिलों का।
खिन्ना दीना परम लख के नन्द की भामिनी को।
चिन्ता डूबी सकल जनता हो उठी कम्पमाना॥22॥

        कोई रोया सलिल न रुका लाख रोके दृगों का।
        कोई आहें सदुख भरता हो गया बावला सा।
        कोई बोला सकल-ब्रज के जीवनाधार प्यारे।
        यों लोगों को व्यथित करके आज जाते कहाँ हो॥23॥

रोता-धोता विकल बनता एक आभीर बूढ़ा।
दीनों के से वचन कहता पास अक्रूर के आ।
बोला कोई जतन जन को आप ऐसा बतावें।
मेरे प्यार कुँवर मुझसे आज न्यारे न होवें॥24॥

        मैं बूढ़ा हूँ यदि कुछ कृपा आप चाहें दिखाना।
        तो मेरी है विनय इतनी श्याम को छोड़ जावें।
        हा! हा! सारी ब्रज अवनि का प्राण है लाल मेरा।
        क्यों जीयेंगे हम सब उसे आप ले जायँगे जो॥25॥

रत्नों की है न तनिक कमी आप लें रत्न ढेरों।
सोना चाँदी सहित धन भी गाड़ियों आप ले लें।
गायें ले लें गज तुरग भी आप ले लें अनेकों।
लेवें मेरे न निजधन को हाथ मैं जोड़ता हूँ॥26॥

        जो है प्यारी अवनि ब्रज की यामिनी के समाना।
        तो तातों के सहित सब गोपाल हैं तारकों से।
        मेरा प्यारा कुँवर उसका एक ही चन्द्रमा है।
        छा जावेगा तिमिर वह जो दूर होगा दृगों से॥27॥

सच्चा प्यारा सकल ब्रज का वंश का है उँजाला।
दीनों का है परमधन औ वृध्द का नेत्रतारा।
बालाओं का प्रिय स्वजन औ बन्धु है बालकों का।
ले जाते हैं सुरतरु कहाँ आप ऐसा हमारा॥28॥

        बूढ़े के ए वचन सुनके नेत्र में नीर आया।
        ऑंसू रोके परम मृदुता साथ अक्रूर बोले।
        क्यों होते हैं दुखित इतने मानिये बात मेरी।
        आ जावेंगे बिवि दिवस में आप के लाल दोनों॥29॥

आई प्यारे निकट श्रम से एक वृध्दा-प्रवीणा।
हाथों से छू कमल-मुख को प्यार से लीं बलायें।
पीछे बोली दुखित स्वर से तू कहीं जा न बेटा।
तेरी माता अहह कितनी बावली हो रही है॥30॥

        जो रूठेगा नृपति ब्रज का वास ही छोड़ दूँगी।
        ऊँचे-ऊँचे भवन तज के जंगलों में बसूँगी।
        खाऊँगी फूल फल दल को व्यंजनों को तजूँगी।
        मैं ऑंखों से अलग न तुझे लाल मेरे करूँगी॥31॥

जाओगे क्या कुँवर मथुरा कंस का क्या ठिकाना।
मेरा जी है बहुत डरता क्या न जाने करेगा।
मानूँगी मैं न सुरपति को राज ले क्या करूँगी।
तेरा प्यारा-वदन लख के स्वर्ग को मैं तजूँगी॥32॥

        जो चाहेगा नृपति मुझ से दंड दूँगी करोड़ों।
        लोटा-थाली सहित तन के वस्त्र भी बेंच दूँगी।
        जो माँगेगा हृदय वह तो काढ़ दूँगी उसे भी।
        बेटा, तेरा गमन मथुरा मैं न ऑंखों लखूँगी॥33॥

कोई भी है न सुन सकता जा किसे मैं सुनाऊँ।
मैं हूँ मेरा हृदयतल है हैं व्यथायें अनेकों।
बेटा, तेरा सरल मुखड़ा शान्ति देता मुझे है।
क्यों जीऊँगी कुँवर, बतला जो चला जायगा तू॥34॥

        प्यारे तेरा गमन सुन के दूसरे रो रहे हैं।
        मैं रोती हूँ सकल ब्रज है वारि लाता दृगों में।
        सोचो बेटा, उस जननि की क्या दशा आज होगी।
        तेरे जैसा सरल जिस का एक ही लाडिला है॥35॥

प्राचीन की सदुख सुनके सर्व बातें मुरारी।
दोनों ऑंखें सजल करके प्यार के साथ बोले।
मैं आऊँगा कुछ दिन गये बाल होगा न बाँका।
क्यों माता तू विकल इतना आज यों हो रही है॥36॥

        दौड़ा ग्वाला ब्रज नृपति के सामने एक आया।
        बोला गायें सकल बन को आप की हैं न जाती।
        दाँतों से हैं न तृण गहती हैं न बच्चे पिलाती।
        हा! हा! मेरी सुरभि सबको आज क्या हो गया है॥37॥

देखो-देखो सकल हरि की ओर ही आ रही हैं।
रोके भी हैं न रुक सकती बावली हो गई हैं।
यों ही बातें सदुख कहके फूट के ग्वाल रोया।
बोला मेरे कुँवर सब को यों रुला के न जाओ॥38॥

        रोता ही था जब वह तभी नन्द की सर्व गायें।
        दौड़ी आईं निकट हरि के पूँछ ऊँचा उठाये।
        वे थीं खिन्ना विपुल विकला वारि था नेत्र लाता।
        ऊँची ऑंखों कमल मुख थीं देखती शंकिता हो॥39॥

काकातूआ महर-गृह के द्वार का भी दुखी था।
भूला जाता सकल-स्वर था उन्मना हो रहा था।
चिल्लाता था अति बिकल था औ यही बोलता था।
यों लोगों को व्यथित करके लाल जाते कहाँ हो॥40॥