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प्रिय प्रवास / अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’ / षष्ठ सर्ग / पृष्ठ - ३

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लज्जाशीला पथिक महिला जो कहीं दृष्टि आये।
होने देना विकृत-वसना तो न तू सुन्दरी को।
जो थोड़ी भी श्रमित वह हो गोद ले श्रान्ति खोना।
होठों की औ कमल-मुख की म्लानतायें मिटाना॥41॥

जो पुष्पों के 'मधुर-रस को साथ सानन्द बैठे।
पीते होवें भ्रमर भ्रमरी सौम्यता तो दिखाना।
थोड़ा सा भी न कुसुम हिले औ न उद्विग्न वे हों।
क्रीड़ा होवे न कलुषमयी केलि में हो न बाधा॥42॥

कालिन्दी के पुलिन पर हो जो कहीं भी कढ़े तू।
छू के नीला सलिल उसका अंग उत्ताप खोना।
जी चाहे तो कुछ समय वाँ खेलना पंकजों से।
छोटी-छोटी सु-लहर उठा क्रीड़ितों को नचाना॥43॥

प्यारे-प्यारे तरु किसलयों को कभी जो हिलाना।
तो हो जाना मृदुल इतनी टूटने वे न पावें।
शाखापत्रों सहित जब तू केलि में लग्न हो तो।
थोड़ा सा भी न दुख पहुँचे शावकों को खगों के ॥44॥

तेरी जैसी मृदु पवन से सर्वथा शान्ति-कामी।
कोई रोगी पथिक पथ में जो पड़ा हो कहीं तो।
मेरी सारी दुखमय दशा भूल उत्कण्ठ होके।
खोना सारा कलुष उसका शान्ति सर्वाङ्ग होना॥45॥

कोई क्लान्ता कृषक ललना खेत में जो दिखावे।
धीरे-धीरे परस उसकी क्लान्तियों को मिटाना।
जाता कोई जलद यदि हो व्योम में तो उसे ला।
छाया द्वारा सुखित करना, तप्त भूतांगना को॥46॥

उद्यानों में सु-उपवन में वापिका में सरों में।
फूलोंवाले नवल तरु में पत्र शोभा द्रुमों में।
आते-जाते न रम रहना औ न आसक्त होना।
कुंजों में औ कमल-कुल में वीथिका में वनों में॥47॥

जाते-जाते पहुँच मथुरा-धाम में उत्सुका हो।
न्यारी-शोभा वर नगर की देखना मुग्ध होना।
तू होवेगी चकित लख के मेरु से मन्दिरों को।
आभावाले कलश जिनके दूसरे अर्क से हैं॥48॥

जी चाहे तो शिखर सम जो सद्य के हैं मुँडेरे।
वाँ जा ऊँची अनुपम-ध्वजा अङ्क में ले उड़ाना।
प्रासादों में अटन करना घूमना प्रांगणों में।
उद्युक्ता हो सकल सुर से गेह को देख जाना॥49॥

कुंजों बागों विपिन यमुना कूल या आलयों में।
सद्गंधो से भरित मुख की वास सम्बन्ध से आ।
कोई भौंरा विकल करता हो किसी कामिनी को।
तो सद्भावों सहित उसको ताड़ना दे भगाना॥50॥

तू पावेगी कुसुम गहने कान्तता साथ पैन्हे।
उद्यानों में वर नगर के सुन्दरी मालिनों को।
वे कार्यों में स्वप्रियतम के तुल्य ही लग्न होंगी।
जो श्रान्ता हों सरस गति से तो उन्हें मोह लेना॥51॥

जो इच्छा हो सुरभि तन के पुष्प संभार से ले।
आते-जाते स-रुचि उनके प्रीतमों को रिझाना।
ऐ मर्मज्ञे रहित उससे युक्तियाँ सोच होना।
जैसे जाना निकट प्रिय के व्योम-चुम्बी गृहों के॥52॥

देखे पूजा समय मथुरा मन्दिरों मध्य जाना।
नाना वाद्यों 'मधुर-स्वर की मुग्धता को बढ़ाना।
किम्वा ले के रुचिर तरु के शब्दकारी फलों को।
धीरे-धीरे 'मधुररव से मुग्ध हो हो बजाना॥53॥

नीचे फूले कुसुम तरु के जो खड़े भक्त होवें।
किम्वा कोई उपल-गठिता-मूर्ति हो देवता की।
तो डालों को परम मृदुता मंजुता से हिलाना।
औ यों वर्षा कर कुसुम की पूजना पूजितों को॥54॥

तू पावेगी वर नगर में एक भूखण्ड न्यारा।
शोभा देते अमित जिसमें राज-प्रासाद होंगे।
उद्यानों में परम-सुषमा है जहाँ संचिता सी।
छीने लेते सरवर जहाँ वज्र की स्वच्छता हैं॥55॥

तू देखेगी जलद-तन को जा वहीं तद्गता हो।
होंगे लोने नयन उनके ज्योति-उत्कीर्णकारी।
मुद्रा होगी वर-वदन की मूर्ति सी सौम्यता की।
सीधे सीधे वचन उनके सिक्त होंगे सुधा से॥56॥

नीले फूले कमल दल सी गात की श्यामता है।
पीला प्यारा वसन कटि में पैन्हते हैं फबीला।
छूटी काली अलक मुख की कान्ति को है बढ़ाती।
सद्वस्त्त्रों में नवल-तन की फूटती सी प्रभा है॥57॥

साँचे ढाला सकल वपु है दिव्य सौंदर्य्यशाली।
सत्पुष्पों सी सुरभि उस की प्राण संपोषिका है।
दोनों कंधो वृषभ-वर से हैं बड़े ही सजीले।
लम्बी बाँहें कलभ-कर सी शक्ति की पेटिका हैं॥58॥

राजाओं सा शिर पर लसा दिव्य आपीड़ होगा।
शोभा होगी उभय श्रुति में स्वर्ण के कुण्डलों की।
नाना रत्नाकलित भुज में मंजु केयूर होंगे।
मोतीमाला लसित उनका कम्बु सा कंठ होगा॥59॥

प्यारे ऐसे अपर जन भी जो वहाँ दृष्टि आवें।
देवों के से प्रथित-गुण से तो उन्हें चीन्ह लेना।
थोड़ी ही है वय तदपि वे तेजशाली बड़े हैं।
तारों में है न छिप सकता कंत राका निशा का॥60॥