Last modified on 30 जुलाई 2011, at 11:57

प्रिय प्रवास / अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’ / षोडश सर्ग / पृष्ठ - ४

मूली-भूता इस प्रणय की बुध्दि की वृत्तियाँ हैं।
हो जाती हैं समधिकृत जो व्यक्ति के सद्गुणों से।
वे होते हैं नित नव, तथा दिव्यता-धाम, स्थायी।
पाई जाती प्रणय-पथ में स्थायिता है इसी से॥61॥

हो पाता है विकृत स्थिरता-हीन हैं रूप होता।
पाई जाती नहिं इस लिए मोह में स्थायिता है।
होता है रूप विकसित भी प्रायश: एक ही सा।
हो जाता है प्रशमित अत: मोह संभोग से भी॥62॥

नाना स्वार्थों सरस-सुख की वासना-मध्य-डूबा।
आवेगों से वलित ममतावान है मोह होता।
निष्कामी है प्रणय-शुचिता-मुर्ति है सात्तिवकी है।
होती पूरी प्रमिति उसमें आत्म-उत्सर्ग की है॥63॥

सद्य: होती फलित, चित में मोह की मत्त है।
धीरे-धीरे प्रणय बसता, व्यापता है उरों में।
हो जाती है विवश अपरा-वृत्तियाँ मोह-द्वारा।
भावोन्मेषी प्रणय करता चित्त सद्वृत्ति को है॥64॥

हो जाते हैं उदय कितने भाव ऐसे उरों में।
होती है मोह-वश जिनमें प्रेम की भ्रान्ति प्राय:।
वे होते हैं न प्रणय न वे हैं समीचीन होते।
पाई जाती अधिक उनमें मोह की वासना है॥65॥

हो के उत्कण्ठ प्रिय-सुख की भूयसी-लालसा से।
जो है प्राणी हृदय-तल की वृत्ति उत्सर्ग-शीला।
पुण्याकांक्षा सुयश-रुचि वा धर्म-लिप्सा बिना ही।
ज्ञाताओं ने प्रणय अभिधा दान की है उसी को॥66॥

आदौ होता गुण ग्रहण है उक्त सद्वृत्ति-द्वारा।
हो जाती है उदित उर में फेर आसंग-लिप्सा।
होती उत्पन्न सहृदयता बाद संसर्ग के है।
पीछे खो आत्म-सुधि लसती आत्म-उत्सर्गता है॥67॥

सद्गंधो से, 'मधुर-स्वर से, स्पर्श से औ रसों से।
जो हैं प्राणी हृदय-तल में मोह उद्भूत होते।
वे ग्राही हैं जन-हृदय के रूप के मोह ही से।
हो पाते हैं तदपि उतने मत्तकारी नहीं वे॥68॥

व्यापी भी है अधिक उनसे रूप का मोह होता।
पाया जाता प्रबल उसका चित्त-चांचल्य भी है।
मानी जाती न क्षिति-तल में है पतंगोपमाना।
भृङ्गों, मीनों द्विरद मृग की मत्तत्ता प्रीतिमत्त॥69॥

मोहों में है प्रबल सबसे रूप का मोह होता।
कैसे होंगे अपर, वह जो प्रेम है हो न पाता।
जो है प्यारा प्रणय-मणि सा काँच सा मोह तो है।
ऊँची न्यारी रुचिर महिमा मोह से प्रेम की है॥70॥

दोनों ऑंखें निरख जिसको तृप्त होती नहीं हैं।
ज्यों-ज्यों देखें अधिक जिसकी दीखती मंजुता है।
जो है लीला-निलय महि में वस्तु स्वर्गीय जो है।
ऐसा राका-उदित-विधु सा रूप उल्लासकारी॥71॥

उत्कण्ठा से बहु सुन जिसे मत्त सा बार लाखों।
कानों की है न तिल भर भी दूर होती पिपासा।
हृत्तन्त्री में ध्वनित करता स्वर्ग-संगीत जो है।
ऐसा न्यारा-स्वर उर-जयी विश्व-व्यामोहकारी॥72॥

होता है मूल अग जग के सर्वरूपों-स्वरों का।
या होती है मिलित उसमें मुग्धता सद्गुणों की।
ए बातें ही विहित-विधि के साथ हैं व्यक्त होतीं।
न्यारे गंधो सरस-रस, औ स्पर्श-वैचित्रय में भी॥73॥

पूरी-पूरी कुँवर-वर के रूप में है महत्ता।
मंत्रो से हो मुखर, मुरली दिव्यता से भरी है।
सारे न्यारे प्रमुख-गुण की सात्तिवकी मुर्ति वे हैं।
कैसे व्यापी प्रणय उनका अन्तरों में न होगा॥74॥

जो आसक्ता ब्रज-अवनि में बालिकायें कई हैं।
वे सारी ही प्रणय रँग से श्याम के रंजिता हैं।
मैं मानूँगी अधिक उनमें हैं महा-मोह-मग्ना।
तो भी प्राय: प्रणय-पथ की पंथिनी ही सभी हैं॥75॥

मेरी भी है कुछ गति यही श्याम को भूल दूँ क्यों।
काढ़ूँ कैसे हृदय-तल से श्यामली-मुर्ति न्यारी।
जीते जी जो न मन सकता भूल है मंजु-तानें।
तो क्यों होंगी शमित प्रिय के लाभ की लालसायें॥76॥

ए ऑंखें हैं जिधर फिरती चाहती श्याम को हैं।
कानों को भी 'मधुर-रव की आज भी लौ लगी है।
कोई मेरे हृदय-तल को पैठ के जो विलोके।
तो पावेगा लसित उसमें कान्ति-प्यारी उन्हीं की॥77॥

जो होता है उदित नभ में कौमुदी कांत आ के।
या जो कोई कुसुम विकसा देख पाती कहीं हूँ।
शोभा-वाले हरित दल के पादपों को विलोके।
है प्यारे का विकच-मुखड़ा आज भी याद आता॥78॥

कालिन्दी के पुलिन पर जा, या, सजीले-सरों में।
जो मैं फूले-कमल-कुल को मुग्ध हो देखती हूँ।
तो प्यारे के कलित-कर की औ अनूठे-पगों की।
छा जाती है सरस-सुषमा वारि स्रावी-दृगों में॥79॥

ताराओं से खचित-नभ को देखती जो कभी हूँ।
या मेघों में मुदित-बक की पंक्तियाँ दीखती हैं।
तो जाती हूँ उमग बँधता ध्यान ऐसा मुझे है।
मानो मुक्ता-लसित-उर है श्याम का दृष्टि आता॥80॥