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प्रिय प्रवास / अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’ / षोडश सर्ग / पृष्ठ - ५

छू देती है मृदु-पवन जो पास आ गात मेरा।
तो हो जाती परस सुधि है श्याम-प्यारे-करों की।
ले पुष्पों की सुरभि वह जो कुंज में डोलती है।
तो गंधो से बलित मुख की वास है याद आती॥81॥

ऊँचे-ऊँचे शिखर चित की उच्चता हैं दिखाते।
ला देता है परम दृढ़ता मेरु आगे दृगों के।
नाना-क्रीड़ा-निलय-झरना चारु-छीटें उड़ाता।
उल्लासों को कुँवर-वर के चक्षु में है लसाता॥82॥

कालिन्दी एक प्रियतम के गात की श्यामता ही।
मेरे प्यासे दृग-युगल के सामने है न लाती।
प्यारी लीला सकल अपने कूल की मंजुता से।
सद्भावों के सहित चित में सर्वदा है लसाती॥83॥

फूली संध्या परम-प्रिय की कान्ति सी है दिखाती।
मैं पाती हूँ रजनि-तन में श्याम का रङ्ग छाया।
ऊषा आती प्रति-दिवस है प्रीति से रंजिता हो।
पाया जाता वर-वदन सा ओप आदित्य में है॥84॥

मैं पाती हँ अलक-सुषमा भृङ्ग की मालिका में।
है आँखों की सु-छवि मिलती खंजनों औ मृगों में।
दोनों बाँहें कलभ कर को देख हैं याद आती।
पाई शोभा रुचिर शुक के ठोर में नासिका की॥85॥

है दाँतों की झलक मुझको दीखती दाड़िमों में।
बिम्बाओं में वर अधर सी राजती लालिमा है।
मैं केलों में जघन-युग ही मंजुता देखती हूँ।
गुल्फों की सी ललित सुषमा है गुलों में दिखाती॥86॥

नेत्रोन्मादी बहु-मुदमयी-नीलिमा गात की सी।
न्यारे नीले गगन-तल के अङ्क में राजती है।
भू में शोभा, सुरस जल में, वद्दि में दिव्य-आभा।
मेरे प्यारे-कुँवर वर सी प्रायश: है दिखाती॥87॥

सायं-प्रात: सरस-स्वर से कूजते हैं पखेरू।
प्यारी-प्यारी 'मधुर-ध्वनियाँ मत्त हो, हैं सुनाते।
मैं पाती हूँ 'मधुर ध्वनि में कूजने में खगों के।
मीठी-तानें परम-प्रिय को मोहिनी-वंशिका की॥88॥

मेरी बातें श्रवण करके आप उद्विग्न होंगे।
जानेंगे मैं विवश बन के हूँ महा-मोह-मग्ना।
सच्ची यों है न निज-सुख के हेतु मैं मोहिता हूँ।
संरक्षा में प्रणय-पथ के भावत: हूँ सयत्ना॥89॥

हो जाती है विधि-सृजन से इक्षु में माधुरी जो।
आ जाता है सरस रंग जो पुष्प की पंखड़ी में।
क्यों होगा सो रहित रहते इक्षुता-पुष्पता के।
ऐसे ही क्यों प्रसृत उर से जीवनाधार होगा॥90॥

क्यों मोहेंगे न दृग लख के मुर्तियाँ रूपवाली।
कानों को भी 'मधुर-स्वर से मुग्धता क्यों न होगी।
क्यों डूबेंगे न उर रँग में प्रीति-आरंजितों के।
धाता-द्वारा सृजित तन में तो इसी हेतु वे हैं॥91॥

छाया-ग्राही मुकुर यदि हो, वारि हो चित्र क्या है।
जो वे छाया ग्रहण न करें चित्रता तो यही है।
वैसे ही नेत्र, श्रुति, उर में जो न रूपादि व्यापें।
तो विज्ञानी, विबुध उनको स्वस्थ कैसे कहेंगे॥92॥

पाई जाती श्रवण करने आदि में भिन्नता है।
देखा जाना प्रभृति भव में भूरि-भेदों भरा है।
कोई होता कलुष-युत है कामना-लिप्त हो के।
त्योंही कोई परम-शुचितावान औ संयमी है॥93॥

पक्षी होता सु-पुलकित है देख सत्पुष्प फूला।
भौंरा शोभा निरख रस ले मत्त हो गूँजता है।
अर्थी-माली मुदित बन भी है उसे तोड़ लेता।
तीनों का ही कल-कुसुम का देखना यों त्रिधा है॥94॥

लोकोल्लासी छवि लख किसी रूप उद्भासिता की।
कोई होता मदन-वश है मोद में मग्न कोई।
कोई गाता परम-प्रभु की कीर्ति है मुग्ध सा हो।
यों तीनों की प्रचुर-प्रखरा दृष्टि है भिन्न होती॥95॥

शोभा-वाले विटप विलसे पक्षियों के स्वरों से।
विज्ञानी है परम-प्रभु के प्रेम का पाठ पाता।
व्याधा की हैं हनन-रुचियाँ और भी तीव्र होतीं।
यों दोनों के श्रवण करने में बड़ी भिन्नता है॥96॥

यों ही है भेद युत चखना, सूँघना और छूना।
पात्रो में है प्रकट इनकी भिन्नता नित्य होती।
ऐसी ही हैं हृदय-तल के भाव में भिन्नतायें।
भावों ही से अवनि-तल है स्वर्ग के तुल्य होता॥97॥

प्यारे आवें सु-बयन कहें प्यार से गोद लेवें।
ठंढे होवें नयन, दुख हों दूर मैं मोद पाऊँ।
ए भी हैं भाव मम उर के और ए भाव भी हैं।
प्यारे जीवें जग-हित करें गेह चाहे न आवें॥98॥

जो होता है हृदय-तल का भाव लोकोपतापी।
छिद्रान्वेषी, मलिन, वह है तामसी-वृत्ति-वाला।
नाना भोगाकलित, विविधा-वासना-मध्य डूबा।
जो है स्वार्थाभिमुख वह है राजसी-वृत्ति शाली॥99॥

निष्कामी है भव-सुखद है और है विश्व-प्रेमी।
जो है भोगोपरत वह है सात्तिवकी-वृत्ति-शोभी।
ऐसी ही है श्रवण करने आदि की भी व्यवस्था।
आत्मोत्सर्गी, हृदय-तल की सात्तिवकी-वृत्ति ही है॥100॥