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प्रेमी पथिक / तोताकृष्ण गैरोला

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चंदा आधा सरग<ref>आसमान</ref> पर थै<ref>था</ref> सर्कणी बादल्यूँ मा,
काँसी की सी थकुलि<ref>थाली</ref> रड़नी खत्खली<ref>चिकनी</ref> खूल्यूँ मा।
निन्यारे<ref>पक्षी</ref> थे निजन बण का नौवत्या गीत गाणी,
शर्दे रातै शरदि लगणी, शीतली पौन पाणी।
बस्ती धोरा<ref>पास</ref> कखि मि थइ नी गैर भी जंगली थौ,
डालौं<ref>डालियाँ</ref> परथौ बथौं<ref>हवा</ref> लगणू होंद सुँस्याट-सी थौ।
धुधू धू-धू धुरकि पुरको धुर्कणू-सी जनू थौ,
नेडू औणू धमकि धमकी धम्कदो भारि स्यूँ थौ।

हे हे बृन्दा गजब कनि ह्वै बज्र पड़नू सफा धो,<ref>आसमान</ref>,
तेरो निर्णै कुछ भित निह्वै दुख सबसे बड़ो यो।
सच्ची सादी चतुर गहिरो सत्य संकल्प वाली,
हिर्दै सौंपे मइ मु तिन जो ओ कनो कष्ट पाली।

कदों कदों मनहिं मन मा याद बृन्दा कि सारी।
देख्णो साम्णे बिसरि पड़गे स्यू कि भैंभी तवारी।
क्या दौं जाणे डुकरि भागेगे शेर तो फाल<ref>छलांग</ref> काटी,
नन्दू चल्लै फिरभि बणिगे एकदौ संग भाटी।

मन्मा मुखैनी मुख मा मनै नी,
तू पूरि कन्कै मइं बोलु त्वेम्बी,
ताँचै त देवी सब बात मेरी,
मन्मा टटोली तरखि छाणि ल्हे ली।
जो कत्कली की खुद<ref>याद</ref> कल्वली-सी,
लग्णी च वा बोलिहि नी सकेंदी।
कथ्णा हि गौंक्रा करु पर्त ज्यू को,
गुंडी त वा खोलिहि नी सकेंदी।

गोरो-सी मुख सुर्ज-कान्त-मणि-सी किर्णून थौ<ref>से</ref> चस्कणू,
जां की झूलन फुलवाडि परथौ पीलो उद्यो<ref>चमक</ref> दम्कण।
लम्बा लोलक दिप्प था कंदुड़<ref>कान</ref> का मोती जड्या झूलणा
दर्पन सी गलवाड़ियों<ref>गाल</ref> पर थमा दुद्वी बण्या सूझणा।
थै बाँई नकदोड़ि मा चमकणो फूली सुहाणी कनी,
हीरा की कणि ठोंठ मा यकतरैं तोता कि थामी जनी।
छोटी लाल पिठाई की टुपुकि सी बेंदी थई भालकी,
सोना का जनि जंत्र या सजदि थै टीकी धरीं लालकी।

जाँखे थे मृग बालि बीसि रिगणी<ref>घूमना</ref> पाणी न गैथै मर्ये,
हब्रे<ref>कभी</ref> सूरज देखणी हबरि<ref>कभी</ref> वा थै सोचणी प्राण मा,
कीदौ उभ्र गर्जन का च किचदौं ब्रह्माण्ड का ध्यान मा।
दुद्वी चूड़ि बरीक हाथु पर थै सोना कि सादी कनी,
लच्छे रेशम की मृणालु पर छै फूलू पिछाड़ी जनी।
बायाँ हाथ की अंगुली पर छई भिन्ना भई मुंदरी,
खोद्यूँ थौ नउँ हिन्दि मा टकटकी वृन्दावती सुंदरी।
दैणा हाथ न चौंठि मा कलम की मुख्ड़ी छुआई उड़ैं,
बायाँ हाथ न दाबि कागज धर्यू अर्दोन धारी फुडैं।
कूर्ती पैरियूं आसमानि अलगीं छाती तई दीखणी,
देची ही जनि दिव्य मन्दिर बिटे संसार पलींखणी।
पोंछे सूरज धार<ref>पहाड़ी</ref> का पिछनई बृन्दा खड़ी-की-खड़ी,
देख्दी सामणि म्वाँ फंडो नजर तो फुंल्वाड़ि दी परपडी।
को दौं यो, कनु धूर्त बैठिक तई पुछ्याँ ही बिना,
मनमा सोचदि ह्वैक तैं पिरपिरी<ref>गुस्सा</ref> यो चोर होलो किना।

शब्दार्थ
<references/>