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प्रेम-ख / अनिल पुष्कर

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वो फूल चुन रही है
वो ढेरों नाज़ुक सपने बुन रही है
बाग़ीचे की सबसे हसीन बुलबुल से बातें करती है
पूछा -- कितने दिन और ठहरोगी यहाँ
इस घोसले में
और फिर उसके बाद क्यूँ बदलना है तुम्हें आशियाना
क्या फुर्र से उड़ते ही वो फिर से चहकेगी मिठास भर

हालाँकि
उसके बारजे में अब भी एक बुना हुआ घोसला रखा है
जिसमें फिर से झीना एक रोशनदान है कि
उसे खुला आसमान जब भी बुलाएगा
उड़ना तय है।