"प्रेम-पथ हो न सूना / गोपालदास "नीरज"" के अवतरणों में अंतर
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+ | प्रेम-पथ हो न सूना कभी इसलिए | ||
+ | जिस जगह मैं थकूँ, उस जगह तुम चलो। | ||
− | + | क़ब्र-सी मौन धरती पड़ी पाँव परल | |
− | + | शीश पर है कफ़न-सा घिरा आसमाँ, | |
+ | मौत की राह में, मौत की छाँह में | ||
+ | चल रहा रात-दिन साँस का कारवाँ, | ||
− | + | जा रहा हूँ चला, जा रहा हूँ बढ़ा, | |
− | + | पर नहीं ज्ञात है किस जगह हो? | |
− | + | किस जगह पग रुके, किस जगह मगर छुटे | |
− | + | किस जगह शीत हो, किस जगह घाम हो, | |
− | + | मुस्कराए सदा पर धरा इसलिए | |
− | पर | + | जिस जगह मैं झरूँ उस जगह तुम खिलो। |
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− | + | प्रेम-पथ हो नस सूना कभी इसलिए, | |
− | जिस जगह मैं | + | जिस जगह मैं थकूँ, उस जगह तुम चलो। |
− | प्रेम | + | प्रेम का पंथ सूना अगर हो गया, |
− | + | रह सकेगी बसी कौन-सी फिर गली? | |
+ | यदि खिला प्रेम का ही नहीं फूल तो, | ||
+ | कौन है जो हँसे फिर चमन में कली? | ||
− | प्रेम | + | प्रेम को ही न जग में मिला मान तो |
− | + | यह धरा, यह भुवन सिर्फ़ श्मशान है, | |
− | + | आदमी एक चलती हुई लाश है, | |
− | + | और जीना यहाँ एक अपमान है, | |
− | + | आदमी प्यार सीखे कभी इसलिए | |
− | + | रात-दिन मैं ढलूँ, रात-दिन तुम ढलो। | |
− | आदमी | + | |
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− | + | प्रेम-पथ हो न सूना कभी इसलिए, | |
− | + | जिस जगह मैं थकूँ, उस जगह तुम चलो। | |
− | + | एक दिन काल-तम की किसी रात ने | |
− | + | दे दिया था मुझे प्राण का यह दिया, | |
+ | धार पर यह जला, पार पर यह जला | ||
+ | बार अपना हिया विश्व का तम पिया, | ||
− | + | पर चुका जा रहा साँस का स्नेह अब | |
− | + | रोशनी का पथिक चल सकेगा नहीं, | |
− | + | आँधियों के नगर में बिना प्यार के | |
− | + | दीप यह भोर तक जल सकेगा नहीं, | |
− | पर | + | पर चले स्नेह की लौ सदा इसलिए |
− | + | जिस जगह मैं बुझूँ, उस जगह तुम जलो। | |
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− | + | प्रेम-पथ हो न सूना कभी इसलिए | |
− | जिस जगह मैं | + | जिस जगह मैं थकूँ, उस जगह तुम चलो। |
− | + | रोज़ ही बाग़ में देखता हूँ सुबह, | |
− | + | धूल ने फूल कुछ अधखिले चुन लिए, | |
+ | रोज़ ही चीख़ता है निशा में गगन- | ||
+ | 'क्यों नहीं आज मेरे जले कुछ दीए ?' | ||
− | रोज़ ही | + | इस तरह प्राण! मैं भी यहाँ रोज़ ही, |
− | + | ढल रहा हूँ किसी बूँद की प्यास में, | |
− | + | जी रहा हूँ धरा पर, मगर लग रहा | |
− | + | कुछ छुपा है कहीं दूर आकाश में, | |
− | + | छिप न पाए कहीं प्यार इसलिए | |
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− | छिप न पाए कहीं प्यार इसलिए | + | |
जिस जगह मैं छिपूँ, उस जगह तुम मिलो। | जिस जगह मैं छिपूँ, उस जगह तुम मिलो। | ||
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21:06, 19 जुलाई 2018 के समय का अवतरण
प्रेम-पथ हो न सूना कभी इसलिए
जिस जगह मैं थकूँ, उस जगह तुम चलो।
क़ब्र-सी मौन धरती पड़ी पाँव परल
शीश पर है कफ़न-सा घिरा आसमाँ,
मौत की राह में, मौत की छाँह में
चल रहा रात-दिन साँस का कारवाँ,
जा रहा हूँ चला, जा रहा हूँ बढ़ा,
पर नहीं ज्ञात है किस जगह हो?
किस जगह पग रुके, किस जगह मगर छुटे
किस जगह शीत हो, किस जगह घाम हो,
मुस्कराए सदा पर धरा इसलिए
जिस जगह मैं झरूँ उस जगह तुम खिलो।
प्रेम-पथ हो नस सूना कभी इसलिए,
जिस जगह मैं थकूँ, उस जगह तुम चलो।
प्रेम का पंथ सूना अगर हो गया,
रह सकेगी बसी कौन-सी फिर गली?
यदि खिला प्रेम का ही नहीं फूल तो,
कौन है जो हँसे फिर चमन में कली?
प्रेम को ही न जग में मिला मान तो
यह धरा, यह भुवन सिर्फ़ श्मशान है,
आदमी एक चलती हुई लाश है,
और जीना यहाँ एक अपमान है,
आदमी प्यार सीखे कभी इसलिए
रात-दिन मैं ढलूँ, रात-दिन तुम ढलो।
प्रेम-पथ हो न सूना कभी इसलिए,
जिस जगह मैं थकूँ, उस जगह तुम चलो।
एक दिन काल-तम की किसी रात ने
दे दिया था मुझे प्राण का यह दिया,
धार पर यह जला, पार पर यह जला
बार अपना हिया विश्व का तम पिया,
पर चुका जा रहा साँस का स्नेह अब
रोशनी का पथिक चल सकेगा नहीं,
आँधियों के नगर में बिना प्यार के
दीप यह भोर तक जल सकेगा नहीं,
पर चले स्नेह की लौ सदा इसलिए
जिस जगह मैं बुझूँ, उस जगह तुम जलो।
प्रेम-पथ हो न सूना कभी इसलिए
जिस जगह मैं थकूँ, उस जगह तुम चलो।
रोज़ ही बाग़ में देखता हूँ सुबह,
धूल ने फूल कुछ अधखिले चुन लिए,
रोज़ ही चीख़ता है निशा में गगन-
'क्यों नहीं आज मेरे जले कुछ दीए ?'
इस तरह प्राण! मैं भी यहाँ रोज़ ही,
ढल रहा हूँ किसी बूँद की प्यास में,
जी रहा हूँ धरा पर, मगर लग रहा
कुछ छुपा है कहीं दूर आकाश में,
छिप न पाए कहीं प्यार इसलिए
जिस जगह मैं छिपूँ, उस जगह तुम मिलो।