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प्रेम के असम्भव गल्प में-8 / आशुतोष दुबे

प्रेम कभी असफल नहीं होता. यह शब्द प्रेम के शब्दकोष में तिरस्कृत है.बल्कि वह सफलता जैसे बाज़ारु शब्दों को भी तुच्छ ही मानता है. उसकी गरिमा उसके होने में है, उसके नतीजों में नहीं.


अब तुम वहाँ हो जहाँ मैं तुम्हें देख सकता हूं
अब मैं वहाँ हूँ जहाँ से तुम मुझसे बात कर सकती हो
हम एक-दूसरे के जीवन में नहीं हैं
पर एक-दूसरे की दुनियाओं को देख सकते हैं
काँच की दीवार के पार से

जब परिभाषाओं की दस्तक दरवाज़े पर होनी ही थी
पता नहीं क्या हुआ
हम क्यों लौट गए
कभी-कभी समय अपनी गेंद को ऐसे स्पिन कर देता है
कि होने वाला अघटित रह जाता है
और अनसोचा हो कर रहता है

लेकिन हम अफसोस में नहीं, खुश हैं
और एक-दूसरे को खुश देखकर भी खुश हैं
और इसका कोई तर्क ढूंढना मुश्किल है कि ऐसा क्यों है

सच तो यह है कि हम अब और ज़्यादा बातें करते हैं
हंसते हैं, तुनकते हैं, वक़्त बिताते हैं
क्योंकि इस सबको कहीं और नहीं पहुंचना है
ज़्यादा से ज़्यादा काँच की दीवार के उस तरफ

जहाँ से तुम मुझे देख सकती हो और मैं तुम्हें
अपनी-अपनी दुनियाओं की खुशियों और झंझटों में मसरुफ
जहाँ कामना पीली पड़कर झर चुकी
और शुभकामना को हम सींच रहे हैं.

वह है तो हम हैं. उसके तिनकों से बना हुआ है हमारा घोंसला. हम यहाँ से संसार में उड़ान लेते हैं और यहीं लौटते हैं बार-बार. वह एक ठंडी हथेली है हमारे तपते हुए सिर पर. एक स्पर्श. एक संवाद. एक दृष्टि. मन ही मन का सारा व्यापार. कभी-कभी वह भी किसी स्वप्न में ही. कोई स्मृति भर. दरअसल कहीं नहीं. दरअसल यहीं कहीं. वह दरअसल और तसव्वुर के बीच की सरहद पर दोनों तरफ तस्करी करने वाला अय्यार है.