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प्रेम के असम्भव गल्प में-9 / आशुतोष दुबे

प्रेम इतना नामाकूल है कि अंतत: वह ऐसी तमाम सूक्तियों, सुभाषितों और वाक्यों से चुपके से निकल भागता है. वे बेचारे हक्के-बक्के से फिर उसके पीछे-पीछे भागते हैं. हाँफते हुए, थक कर कागज़ों पर टूट कर बिखरते-गिरते हुए. ज़रा दम लेकर फिर उस छलिए के पीछे दौड़ते हुए. यह एक हारी हुई होड़ है. लेकिन सच यह भी है कि प्रेम के असम्भव गल्प में प्रवेश करने के लिए हार और जीत जैसे शब्दों को अपनी ग्लानि और अपने गुरुर को जूतों की तरह बाहर उतार कर आना पड़ता है.