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प्रेम स्मृति-17 / समीर बरन नन्दी

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विस्थापित होने की मौत के सिवा और कुछ नहीं था मेरे पास
और थोड़ा-सा तुम्हारा प्रेमबीज मेरे आईने में और
लगातार घटता रहा है आश्चर्य
मेरे अनिच्छुक जीवन में ।
क्लेश रहा, अस्पष्ट मित्रताएँ रहीं
उससे भी ज़्यादा -- नोक भर पाया तो हिमालय भर गाया

हाथ में ह्रदय लुकाए रहा
रहा संकट का भान
और प्रेम घृणा ने किया खाद का काम

दुःख से अधिक विश्वास रहा...
सपने जितने मरे नहीं उससे अधिक जगे
क्वांटम थ्योरी की तुम रही यलोकेशी ।.

अब कम्प्यूटर चलाना आ गया है
बहे चले आ रहे नहर में शब्द
विस्थापन, प्रेम और घृणा पाना....

खूब हरा भरा हो गया है -- कविता का कल्पतरु ।