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प्रेम स्मृति-21 / समीर बरन नन्दी

लो... यहाँ हाथ रखो...
छू पा रहे हो न मुझे ।
(ज़रा रुको.. मैं ज़रा करवट ले लूँ )

अब हाथ दो, अस्तित्व मिल रहा है न मेरा.. नहीं ?

ये नहीं, वो नहीं.. अरे जाओ...
तुम्हारी जन्मान्ध आँखों में केवल अन्धकार है

ये क्या है.. अरे ये मेरी उँगुलियाँ है,
यह नहीं यह मेरा कण्ठनाल है.. ज़हर छान कर रखने की जगह ।
एक कवि की मिटटी का सूर्य... यह आग नहीं है..
मै हूँ.. मेरी जवानी की कहानी है ।

सुख के क़रीब सारा जीवन कटा पड़ा रहा यह कबन्ध प्रेमी
वहाँ क्या खोज रही हो, यह दुःख है
तुम्हारा प्रेम न पाकर सुखी नदी है यह
नीली होकर घास पर पड़ी हुई है

इसके ठीक दाएँ हाथ रखो... ह्रदय है यह
यहाँ रहता है प्रेम, स्मृतियाँ.. प्रेमी का सुख..

इसी छाती में प्रेम था.. स्मृति थी सब था...
केवल तुम ही नहीं रही....