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प्रेम ही जीवन का आधार / नीरज दइया

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राजस्थानी साहित्य में प्रेम काव्य परंपरा की बात करें तो मीरा (1498-1573) का काव्य अद्वितीय उदाहरण है। चंदबरदाई (1148-1192) कृत ‘पृथ्वीराज रासो’ आदिकालीन राजस्थानी ग्रंथ में अनेक स्थलों पर प्रेम-वर्णन देख सकते हैं। लोक साहित्य और प्रेमाख्यान काव्यों में प्रेम की महत्ता को रेखांकित किया गया है। राजस्थान में ढोला-मारू प्रेमी युगल को प्रेम का पर्याय मानते हैं।
मारू थारे देस में, उपजै तीन रतन।
इक ढोला, इक मारवण, तीजो कसूमळ रंग॥
लोक साहित्य के अंतगर्त गद्य और पद्य दोनों रूपों में प्रचुर रचनाएं हैं, जिनमें प्रेम के विविध रंगों को देख सकते हैं - कहते हैं कि एक बार दो औरतें एक गांव से दूसरे गांव जा रही थी। रास्ता कच्चा था और दूरी अधिक। रास्ते में एक जोहड़ा आया। देखा - जोहड़ा सूखा हुआ था। पर, जोहड़े की चोभी में चल्लू भर पानी था। बस, इतना कि किसी एक छोटे जानवर की प्यास बुझ सके। पानी के पास ही एक हिरण और एक हिरणी मरे दिखाई दिए तो पहली औरत ने दूसरी से पूछा -
‘खड़्यो न दीखै पारधी, लग्यो न दीखै बांण।
म्हैं तनै बूझूं ऐ सखी, किण विध तजिया पिरांण।।’
(ना शिकारी आया दिखता है, ना बाण लगा दिख रहा है।
मैं तुमसे पूछती हूं हे सखी! इन्होंने किस तरह से प्राण त्यागे हैं।)
तब दूसरी औरत ने उत्तर दिया -
‘जळ थोड़ो नेह घणो, लग्यो प्रीत रो बांण।
तूं पी तूं पी कैवतां, दोनूं तजिया, पिरांण।।’
(पानी थोड़ा और प्यार बहुत, लगा प्रेम का बाण।
तू पी तू पी कहते हुए, दोनों ने त्यागे प्राण॥)
प्रेम जहां मनोरंजन का विषय रहा है, वहीं प्रण-पालन और मर्यादित जीवन का एक अभिन्न अंग भी माना गया है। पद्मनी का जौहर अनुपम प्रेम का उदाहरण है।
मुझे लगता है कि प्रत्येक युग के साहित्य में विभिन्न धाराएं समानांतर रही हैं और साहित्य इतिहास अथवा आलोचना ने उनमें से कुछ को प्रमुखता के साथ रेखांकित किया है। राजस्थानी और हिंदी ही नहीं वरन संपूर्ण भारतीय साहित्य के मध्यकाल में भक्ति रस की प्रमुखता रही है। यह ईश्वरीय प्रेम बाद में दैहिक रूप में चित्रित हुआ और आजादी के समय देश प्रेम के रूप में। आधुनिक काल में राजस्थानी साहित्य की चर्चा करें तो हिंदी काव्य धाराओं और आंदोलनों के समानांतर नई कविता का विकास रेखांकित किया गया है। अज्ञेय जी के ‘तार सप्तक’ की तर्ज पर प्रकाशित पांच राजस्थानी कवियों की कविताओं के संग्रह - ‘राजस्थानी एक’ को नई कविता का आगाज मानते हैं। मंचीय कविता में शृंगार रस के गीतों में प्रेम के अनेक चित्र देखे जा सकते हैं, किंतु नई कविता धारा में प्रेम कविताओं का कोई संपादित संकलन अब तक राजस्थानी में प्रकाशित नहीं हुआ है। आधुनिक कवियों के कविता संग्रहों में प्रेम-केंद्रित कविताएं शोध का विषय है।
कबीर जिन ढाई आखरों की बात करते हैं, उसको अभिव्यक्त करने के लिए अधिक आखरों की मथापच्ची नहीं होनी चाहिए। जैसे कहा जाता है - ‘हरि अनंत, हरि कथा अनंता’, वैसे ही प्रेम और इसकी कथा भी अनंत है। संभवत: इसी कारण सूफी काव्य में प्रेम को ईश्वर-आराधना का मार्ग कहा गया है। प्रेम की धारा हर दौर में रही है और रहेगी, यह विलुप्त नहीं हो सकती है।
वरिष्ठ कवि-संपादक आदरणीय सुधीर सक्सेना जी इस काव्य संकलन के प्रेरक रहे हैं, उनका विचार था कि राजस्थानी और भारतीय भाषाओं में ऐसे संकलन आने चाहिए। राजस्थानी के लिए यह अवसर मुझे प्रदान करने के लिए मैं आभारी हूं। इस संग्रह के माध्यम से हम राजस्थानी के अनेक आधुनिक कवियों की चयनित प्रेम कविताओं के हिंदी अनुवाद प्रस्तुत कर रहे हैं। यहां संभव है कि हमारी सीमाओं के रहते अनेक प्रतिनिधि कवियों की रचनाएं संकलन में शामिल नहीं हो सकी है। यहां किसी प्रकार का हमारा कोई दावा नहीं है, यह बस एक प्रयास है। वैसे अनुवाद में मूल कवि से संपर्क कर उनकी रचनाओं के प्रकाशन अधिकार और अनुमति आदि प्राप्त करना भी समस्या रहती है। यह काम बहुत बड़ा है और यह संकलन बस इसके एक आरंभ के रूप में देखे जाने की अपेक्षा है। संकलित कविताएं अपने विषय में यहां कुछ कहना उचित नहीं है, क्योंकि संग्रह की कविताएं खुद बोलती हैं। आशा है यह संकलन आपको रुचिकर प्रतीत होगा, आपके विचारों की प्रतीक्षा रहेगी।

- डॉ. नीरज दइया