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प्रेम / निवेदिता

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मैं क्या कहूँ
मुझसे पहले भी जाने कितनी बार
दुहराया गया है यह शब्द
कितनी बार रची गई है कविता

कितनी बार
लिखा गया है इतिहास ‘ढाई आखर’ का
जिसमें सिमट गई है पूरी दुनिया
पूरा ब्रह्माँड
पूरा देवत्व

इस आपा-धापी समय में
प्रेम कहीं गुम-सुम पड़ा है
चाहती हूँ फिर से जगाएँ हम
ठीक वैसे ही जैसे
समुद्र के बीच से जगती है लहरें
जैसे बादलों की छाती से फूटती है बौछारें
जैसे शाम की धुली अलसाई हवा कर जाती है रूमानी बातें
जैसे सूखते सोते
अचानक भर जाते हैं लबालब

आओ एक बार फिर धमनियों में
रक्त की तरह फैल जाओ प्रेम !