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प्रेम / रणविजय सिंह सत्यकेतु

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प्रेम करना जहाँ गुनाह है
और बच्चे पैदा करना जुर्म
कितनी गर्म होगी वहाँ की हवा !
खिलने की कल्पना से ही
सिहर उठते होंगे फूल
काँपती होंगी कलियाँ;
दहशत कायम करने का सबसे सुगम उपाय है
लगाना हर तरह की अभिव्यक्ति पर लगाम
जड़ तत्व और तम गुण की पैदाइश
हुकूमत को मंज़ूर नहीं मुस्कान
आँखों में पानी;
मगर मुहब्बत को चाहिए स्वतंत्रता
हर उस बन्धन से जो करती है
मस्तिष्क को निश्चेतन
हृदय को भावनाहीन,
जैसे पक्षियों को विचरने के लिए चाहिए
सारा आकाश
नहीं मंज़ूर उन्हें कोई बन्धन
धरती उजाड़,
बुलबुलों के चहकने से
उमड़ती हैं भावनाएँ
जगती है मन में आस
जो नहीं मानतीं फरमान
वहशी हुक़्म,
जब घोर यातनाएँ सहना
और सलाख़ों के पीछे जाना
लगता है आसान
महसूस होता है कैसा भी दण्ड कमज़ोर
तभी मन में जागता है संकल्प
और करता है कोई प्रेम ।