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प्रेम / रूपम मिश्र

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कई सालों के अन्तराल पर वे दोनों
मुझे एक ही स्टेशन पर मिले थे
प्लेटफॉर्म नम्बर भी एक ही था !
मैंने बड़े इसरार के साथ दोनों को
अपने साथ की बर्थ पर बैठने को कहा !

दोनों की आँखों में जो अनोखा उजास था
मैं उसी से प्रेम की नई भाषा ईजाद कर रही थी !
औपचारिकता उचक कर स्नेह तक पहुँच रही थी
मैं दोनों से सपने और कोरे आदर्श पर विमर्श करती

पहले मिले सहयात्री के साथ चलते हुए
अनजाने में मेरा आँचल छू जाता तो झटक देता था
दूसरा बात करते इतना भावुक हो जाता
कि मेरी गोद में सिर रख कर रो पड़ता
 
मैं दोनों से प्रेम का अन्तिम अर्थ जानना चाहती थी
पर अनुवाद में दोनों को असमर्थ पाया
एक तबीयत से इतना तरतीब था
कि मैं मुग्धता से उसे देखती
और दूसरे की बेतरतीबी से ही मैं सम्मोहित थी

दोनों के ढंग बिल्कुल अलग थे
पर मन का रंग एक जैसा था
प्रेम हमेशा ईमानदार रहा
बस, निर्मोह नहीं रहा मेरा आकलन
जबकि आँखों से हमेशा प्रेम ने
अपनी स्पष्ट उपस्थिति दर्ज की
पर, चितवन की चोट से मैं कतराती रही

एक से मैंने कभी नहीं कहा —
मैं तुमसे प्रेम करती हूँ !
पर, वो इसी बात पर नाराज़ रहा
कि मैं उससे प्रेम क्यों करने लगी !

दूसरे से मैंने खुद जताया प्रेम
पर वह अधीर,
तड़प कर पूछता है
कि मुझसे प्रेम तो करती हो ना !

और अचरज़ ये है
कि मुझे दोनों से प्रेम ही हुआ था ।