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फ़र्क़ कुछ तो चाहिए अग़्यार से / मीर 'तस्कीन' देहलवी

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फ़र्क़ कुछ तो चाहिए अग़्यार से
सिर्र-ए-उल्फ़त मि छुपाएँ यार से

अपनी आँखों ये अगर तशबीह हूँ
अश्क टपके रोज़न-ए-दीवार से

बात उन की मोतबर है सच कहा
हाल मेरा पूछिए अग़्यार से

उस की चाटी में नहीं गूबाफ़ सुर्ख़
उठे हैं शोले दहान-ए-मार से

धूप में बैठूँ के ख़ज्लत से उदू
भाग जाएँ साया-ए-दीवार से

पास से मेरे उठाती है गै़र को
ज़ोर हो सकता तो चश्म-ए-ज़ार से

छूटती हैं मुँह पे क्या महताबियाँ
वस्ल के दिन साया-ए-दीवार से

सौ तरह की फ़िक्र ‘तस्कीन’ पड़े
दिल लगा कर उस बुत-ए-अय्यार से