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फ़र्क पड़ता है / जया जादवानी

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नहीं, इससे कोई फ़र्क नहीं पड़ता
कि छोड़ा कहाँ लहरों ने
उड़ाते हुए चिथड़ों को
नहीं, इससे भी कोई फ़र्क नहीं पड़ता
कि ज़र्रा-ज़र्रा देह
ले जाएगा कब कौन
चोंच में दबा अपनी
इससे भी नहीं कि
जीने के जतन सारे गँवाकर
लुढ़क आई पोटली मेरी
नीले आसमान की छत से
इससे भी नहीं कि
तब्दील हो गई
जिस्म की छाँह
काली-अन्धेरी रात में
लहरों के जाने के बाद
गुज़रते देखना
सीप-शंख-घोंघों को
अपने आर-पार
नज़रें टिकाए आसमान पर
महज एक तारे की आस पर
फ़र्क पड़ता है
प्रेम का तारा गिरे टूटकर
और उसकी जलती रोशनी में
न देख पाओ तुम अक्स अपना...।