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फ़लसफ़ा-ए-ज़ीस्त / आशा कुमार रस्तोगी

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बराहे-ज़ीस्त, कुछ मन्ज़र, शदीद आएँगे,
जज़्बे-तौफ़ीक़, कभी दिल से ना जुदा करना।

दौरे-ग़ुरबत-ओ-गर्दिशाँ से, वास्ता हो कभी,
रज़ा ख़ुदा की, मानकर भी तुम बसर करना।

शजर बड़े भी, बहुत से पड़ेंगे राहों मेँ,
छाँव दे-दे कोई, तो उसका शुक़्रिया करना।

दोस्त भी कुछ, ज़रूर दिल तेरा दुखाएँगे,
सिखाएँगे वह बहुत कुछ, ज़रा सबर रखना।

भूला-बिसरा, कोई रफ़ीक़, याद आ जाए,
बिन कोई बात, कभी उस से बात कर लेना।

दिल-ए-पैमाँ कभी, लबरेज़े-ग़मे-यार जो हो,
होठ सीकर के, फ़क़त अश्क़ कुछ बहा लेना।

कई रहबर भी, तुझको आइना दिखाएंगे,
दिखा के आइना, रुख़सत न उन्हें कर देना।

इज़ाफ़े-फ़ासला, इक हुनर-ए-सियासत है,
आ के बातों में, क़ुरबतेँ न तुम मिटा देना।

शानो शौक़त भी लुभाएगी, रक्सो-जलसे भी,
लुत्फ़ लेना, मगर इन्साँ को ना भुला देना।

पुराने राब्तोँ की, यादे-हसीं दिल में रहे,
जो ख़लफ़िशार होँ, फ़ौरन ही तुम मिटा देना।

जलवा-ए-नूर भले, माहो-आफ़ताब-ए-दहर,
दिखे जुगनू जो, तो उससे भी गुफ़्तगू करना।

नातवाँ साज़ गर, जवाब भी दे जाए कभी,
हसीं-सवाले-तराना, ही गुनगुना लेना।

कलम मेँ जान है जब तक, मैं लिखता जाऊँगा,
लगे भला तो भले ना, लगे बुरा जो, तो बता देना।

याद आएँगे कई लोग, नज़्म ये पढ़ कर,
दिल से "आशा" को, कभी पर न तुम भुला देना...!