भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

फ़िलिस्तीन / प्रभात मिलिन्द

Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 03:05, 16 फ़रवरी 2020 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=प्रभात मिलिन्द |अनुवादक= |संग्रह= }...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

1.

अभी तो ठीक से उसके सपनों के पँख भी नहीं उगे थे
अभी तो रँगों को पहचानना शुरू किया था उसने
अभी तो उसकी नाजुक उँगलियों ने
लम्स के मायने सीखे थे
और डगमगाते थे उनके नन्हे पाँव तितली
और जुगनुओं के पीछे दौड़ते हुए
अभी तो आँख भर दुनिया तक नहीं देखी थी
कि मून्द दी गईं उसकी आँखें
और, वह भी तब जब मुब्तिला था वह
ख़ूबसूरत परियों के साथ,
नीन्द की अपनी बेफ़िक्र दुनिया में ।

यह एक क्षत-विक्षत, रक्तस्नात और निश्चेत देह है
बच्चा अपने पिता की गोद में है
जो उसे अपने सूखे होठों से बेतहाशा चूम रहा है
और लिए जा रहा है शफ़्फ़ाक कफ़न में लपेटे…
सुपुर्दे-ख़ाक़ करने उसको

हवा में मुट्ठियाँ लहराते हुए
नारे लगा रहे हैं कुछ बेऔक़ात लोग
और पीछे-पीछे विलाप करतीं
औरतों का अर्थहीन समूह है

आप इस बच्चे की मासूमियत
और औरतों के स्यापे पर हरगिज़ मत जाइए
क़ौम के लिए फ़िक्रमन्द निज़ामों की नज़र में
यह बच्चा चैनो-अमन के लिए
एक बड़ा ख़तरा साबित हो सकता था
ख़तरा भी खासा बड़ा कि मारना पड़ा
उसे मिसाइल के इस्तेमाल से
और आँख भर दुनिया देखने के पहले
बन्द कर दी गईं उसकी आँखें हमेशा के लिए.

यह जश्न मनाने की ज़मीन है …
ऐसे वाक़ये यहाँ रोज़मर्रा के नज़ारे हैं
यहाँ बारूद की शाश्वत गन्ध के बीच
बम और कारतूसों की दिवाली
और सुर्ख़-ताज़ा इनसानी लहू के साथ
होली सा खेल खेलने की रवायत है जैसे

यह एक ऐसा मुल्क है जो चन्द सिरफिरे लोगों के
तसव्वुर और फ़ितूर में है फ़क़त
लेकिन क़ौम के लिए फ़िकमन्द निज़ामों के
ज़ेहन और दुनिया के नक़्शे पर
तक़रीबन न होने के बराबर है …
यह फ़िलीस्तीन है ।

2.

उन लोगों के बारे में भी सोच कर देखिए ज़रा
जिनकी कोई हस्ती नहीं, न घर अपना
न कोई आज़ादी, न कोई मुल्क़ और मर्ज़ी
जो कई पीढ़ियों से अपनी जड़ें तलाश रहे हैं
मुसलसल … इसी रेत और मिट्टी में…
जो बेसब्र हैं जानने के लिए अपने होने
का मतलब और मक़सद
जो बरसों-बरस से जलावतन हैं अपने पुरखों की ही ज़मीन पर

हक़ और ताक़त की इस ज़ोरआज़माइश में
जो हर रोज़ जिबह किए जा रहे हैं
बेक़सूर और बेज़ुबान जानवरों की तरह .. बेवज़ह

कभी रही होगी यह सभ्यताओं के उत्स की धरती
पैगम्बर की पैदाइश और मसीह के
वक़ार की पाकीज़ा ज़मीन
अब तो यह मनुष्यता के अवसान की ज़मीन है

इस ज़मीन पर बेवा और बेऔलाद हो चुकीं
औरतों का समवेत विलाप
अब मरघट के उदास और भयावह कोरस
की तरह गूँजता है…अनवरत

ज़मींदोज़ होती बस्तियों में क़ब्रगाहों
से भी कम रह गई हैं मकानों की तादात ।

बेरूत हो कि बग़दाद…
काबुल, समरकन्द, कश्मीर या फिर ग़ाजा
कभी लोग इसे दुनिया की ज़ीनत और जन्नत कहा करते थे

अलादीन, सिन्दबाद और मुल्ला नसीरुद्दीन
के क़िस्से पढ़कर जाना था हमने भी

परीकथाओं के ये जादुई और ख़ूबसूरत शहर
अब किसी सल्तनत के हरम में पड़ीं उजड़ी माँगों
वाली बेकार और अधेड़ हो चुकी रखैलें हैं
जिनके पूरे जिस्म और चेहरे पर
दाँत और नाख़ूनों के बेशुमार ज़ख़्म हैं
और जिनसे रिसता रहता है खून और मवाद …
लगातार और बेहिसाब

एक अमनपरस्त और तरक्क़ीपसन्द
हुक्मरान के किरदार में
नफ़ीस कपड़े पहने बैठा है जो शख़्स
अपने शुभ्रमहल में… सुदूर और सुरक्षित…
नरमुण्डों के उस बर्बर सौदागर का
उद्दीपन और पौरुष आज भी दरअसल
खून और मवाद के इसी स्वाद की वजह से ज़िन्दा है ।

3.

बादलों और परिन्दों ख़ातिर कोई जगह नहीं
अब काले-चिरायन्ध धुएँ से भरे आसमान में ।
बारूद की चिरन्तन गन्ध ने अगवा कर लिया है
फूलों की ख़ुशबू…वनस्पतियों का हरापन

बच्चों का बचपन, युवाओं के प्रेमपत्र,
औरतों की अस्मत और बुज़ुर्गों की शामें
सब की सब गिरवी हैं आज जंग और
दहशतगर्दी के ज़ालिम हाथों…

जंग और फ़साद में ज़िन्दा बचकर भी
जो मारे जाते हैं वे बच्चे और औरतें हैं
मासूम बच्चे…मज़लूम बच्चे…अपाहिज बच्चे…यतीम बच्चे…
बेवा औरतें…बेऔलाद औरतें…
रेज़ा-रेज़ा औरतें…हवस की शिकार औरतें ।

बच्चे उस वक़्त मारे गए
जब वह खेल रहे थे अपने मेमनों के साथ
औरतें इबादत के वक़्त मारी गईं, या फिर बावर्चीख़ानों में
बुज़ुर्ग मसरूफ़ थे जब अमन के
ताज़ा मसौदे पर बहस में, तब मारे गए
और जवान होते लड़कों को तो मारा गया
बेसबब….सिर्फ शक़ की बिना पर ।

नरमुण्डों की तिज़ारत करने वाले हुक़्मरानो !
इस पृथ्वी पर कुछ भी अनश्वर नहीं…
न तुम्हारी हुक़ूमत और न तुम्हारी तिज़ारत

कुछ बचे रहेंगे तो इतिहास के कुछ ज़र्द पन्ने
और उनमें दर्ज़ तुम्हारी फ़तह के टुच्चे क़िस्से
सोचो, जब क़ौमें ही नहीं बचेंगी
तब क्या करोगे तुम तेल के इन कुओं का
और किनके ख़िलाफ़ काम आएँगी
असले और बारूद की तुम्हारी यह बड़ी-बड़ी दुकानें !

एक सियासी नक़्शे से एक मुल्क को
बेशक़ खारिज़ किया जा सकता है
लेकिन हक़ की लड़ाई और
आज़ादी के सपनों को किसी क़ीमत पर हरगिज़ नहीं

इसी रेत और मिट्टी में एक रोज़ फिर से बसेंगे
तम्बुओं के जगमग और धड़कते डेरे
बच्चे बेफ़िक्र खेलेंगे नीन्द में परियों के साथ
और भागते-फिरेंगे अपने मेमनों के पीछे
औरतें पकाएँगी ख़ुशबूदार मुर्ग रिज़ला
और खुबानी मकलुबा मेहमानों की ख़िदमत में

सर्दियों की रात काम से थके लौटे मर्द
अलाव जलाए बैठकर गाएँगे अपने पसन्द के गाने
बुज़ुक और रबाब की दिलफरेब धुनों पर
एक दिन लौट आएँगे कबूतरों के परदेशी झुण्ड
बचे हुए गुम्बदों और मीनारों पर…
फिर से अपने-अपने बसेरों में ।

देखिए तो सिर्फ़ एक अन्धी सुरंग का नाम है यह

सोचिए तो उम्मीद और मुख़ालफ़त की
एक लौ है फ़िलीस्तीन !!