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फागुन / राकेश खंडेलवाल

ओढ़ बसन्ती चूनर पुरबा, द्वारे पर काढ़े राँगोली
जाते जाते शरद एक पल फिर ढक सबसे करे ठिठोली

चौपालों पर के अलाव अब उत्सुक होकर पंथ निहारें
सोनहली धानी फसलों की कब आकर उतरेगी डोली

पल्लव पल्लव ले अँगड़ाई, कली कली ने आँखें खोली
निकल पड़ी फिर नंद गाँव से ब्रज के मस्तानों की टोली

बरगद पर, पीपल पर बैठी बुलबुल, कोयल, मैना बोली
रंगबिरंगा फागुन आया, झूमो नाचो खेलो होली