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फासिस्ट / कौशल किशोर

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दुनिया में
जहाँ भी फासिस्ट आये हैं
वे चुनाव लड़कर आये हैं
अपने विरोधियों को पराजित कर
वे सत्ता में आये हैं
मतलब लोकतंत्र के रास्ते ही
वे आये हैं
और इसी रास्ते भारत भूमि में भी खिला है
उनका कमल

राष्ट्रध्वज के नीचे
उन्हें करनी पड़ी है परेड
राष्ट्रगान के लिए सावधान की मुद्रा में
वे खड़े हुए हैं
संविधान की शपथ ली है
गाँधी समाधि पर सिर नवाया है
फूल चढ़ाया है

उन्होंने कभी नहीं चाहा ऐसा करना
वे कहते रहे कि उनके पास है ध्वज
सदियों से लहराता
गीत भी है और गीता भी
जर्मनी से लेकर इटली तक
अन्तर्राष्ट्रीय विरासत है उनके पास
फिर क्या मजबूरी कि ढ़ोये गाँधी को
जिसे मानना हो वह बापू माने
हम क्यों माने और पूजे उसे
 
पर यह लोकतंत्र है
जहाँ नापसन्दगी को भी
उन्हें अपनी पसन्दगी बनानी पड़ी है
पर यह मजबूरी कब तक?
मजबूरी उनके लिए महात्मा गाँधी नहीं
फेंक सकते हैं इसका चोला और
हो सकते हैं मगरुर कभी भी

वे नहीं कर सकते सदा-सर्वदा के लिए
इस लोकतंत्र पर भरोसा
पता नहीं इस लोकतंत्र का लोक
कब पलटी मार दे, दांव दे दे
कर दे चारो खाने चित्त

इसीलिए फासिस्टों ने तय किया है
कि लोकतंत्र के लोक को भीड़ में बदल दिया जाय
तब इस भीड़ को भेड़ में बदलना होगा आसान
उसे हांकना होगा और भी आसान

यह खूबी है फासिस्टों की
कि वे चुनते हैं राह अपनी ऐसी
जिस पर चलना आसान, बढ़ना आसान
और वे दौड़ सके सरपट

वे जानते हैं कि जो उनके लिए है आसान
वह दूसरों के लिए नहीं वैसा
विरोधियों के लिए यह बिजली के नंगे तारों पर चलना है।