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फिर कोई रूप ले कर ज़िंदा न हो सकूँगा / तसनीफ़ हैदर

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फिर कोई रूप ले कर ज़िंदा न हो सकूँगा
जब तक न मैं ख़ुद अपनी मिट्टी में जा मिलूँगा

ये रौशनाई यूँही लिखती रहेगी मुझ को
और मैं भी क्या मज़े से ये दास्ताँ पढूँगा

और जब समेट लेगी मुझ को मिरी ख़ामोशी
आवाज़ की तरह से ख़ुद को सुना करूँगा

मैं रास्ता हूँ मुझ पर से सब गुज़र रहे हैं
मैं कौन सा किसी के दामन को थाम लूँगा

बादल की तरह मुझ पर छाया हुआ है कोई
वो नम हुआ तो जैसे मैं भी बरस पडूँगा

ज़िंदा रहेंगे यूँही मेरे हुरूफ़ मुझ में
मैं लफ़्ज़ हूँ बदल कर कुछ और हो रहूँगा