http://kavitakosh.org/kk/index.php?title=%E0%A4%AB%E0%A4%BF%E0%A4%B0_%E0%A4%A4%E0%A5%81%E0%A4%AE%E0%A5%8D%E0%A4%B9%E0%A4%BE%E0%A4%B0%E0%A5%87_%E0%A4%A6%E0%A5%8D%E0%A4%B5%E0%A4%BE%E0%A4%B0_%E0%A4%AA%E0%A4%B0_/_%E0%A4%B0%E0%A4%BE%E0%A4%AE%E0%A5%87%E0%A4%B6%E0%A5%8D%E0%A4%B5%E0%A4%B0_%E0%A4%B6%E0%A5%81%E0%A4%95%E0%A5%8D%E0%A4%B2_%27%E0%A4%85%E0%A4%82%E0%A4%9A%E0%A4%B2%27&feed=atom&action=historyफिर तुम्हारे द्वार पर / रामेश्वर शुक्ल 'अंचल' - अवतरण इतिहास2024-03-29T10:14:14Zविकि पर उपलब्ध इस पृष्ठ का अवतरण इतिहासMediaWiki 1.24.1http://kavitakosh.org/kk/index.php?title=%E0%A4%AB%E0%A4%BF%E0%A4%B0_%E0%A4%A4%E0%A5%81%E0%A4%AE%E0%A5%8D%E0%A4%B9%E0%A4%BE%E0%A4%B0%E0%A5%87_%E0%A4%A6%E0%A5%8D%E0%A4%B5%E0%A4%BE%E0%A4%B0_%E0%A4%AA%E0%A4%B0_/_%E0%A4%B0%E0%A4%BE%E0%A4%AE%E0%A5%87%E0%A4%B6%E0%A5%8D%E0%A4%B5%E0%A4%B0_%E0%A4%B6%E0%A5%81%E0%A4%95%E0%A5%8D%E0%A4%B2_%27%E0%A4%85%E0%A4%82%E0%A4%9A%E0%A4%B2%27&diff=54384&oldid=prevDkspoet: नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=रामेश्वर शुक्ल 'अंचल' |संग्रह= }} <poem> दो सजा मुझको अ...2009-09-15T13:49:56Z<p>नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=रामेश्वर शुक्ल 'अंचल' |संग्रह= }} <poem> दो सजा मुझको अ...</p>
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{{KKRachna<br />
|रचनाकार=रामेश्वर शुक्ल 'अंचल'<br />
|संग्रह=<br />
}}<br />
<poem><br />
दो सजा मुझको असंयत कामना के ज्वार पर,<br />
बिन बुलाए आ गया मैं फिर तुम्हारे द्वार पर।<br />
<br />
दो सजा मुझको - गड़ाऊँ आँख चरणों पर कभी<br />
अनसुनी कर दो मिलन की धड़कने मेरी सभी,<br />
तुम अनुत्तर बन सदा मेरी पुकारों से बेचो<br />
अब न तुम मुझमें नए विश्वास का सपना रचो,<br />
प्राण पर मेरे तुम्हारी ही छलक छाई हुई<br />
चेतना मेरी तुम्हीं में डूब उतराई हुई,<br />
पंख-अधकतरा पखेरू चंद्रमा से होड़ ले!<br />
चाहता आकाश का नीला सितारा तोड़ ले!<br />
<br />
तुम न मिटने भी मुझे दो अनगहे आधार पर,<br />
बिन बुलाए आ गया मैं फिर तुम्हारे द्वार पर।<br />
<br />
दो सजा मुझको तनिक जो आस्था मेरी गले<br />
मर गई जो ज्योति घुलघुल कर अगर फिर से जले,<br />
दो सजा यदि मैं तुम्हारी छाँह को भी प्यार दूँ<br />
यदि तुम्हारे संगदिल को एक भी झंकार दूँ,<br />
यदि प्रकंपित कंठ से कुछ पास आने को कहूँ<br />
मैं तुम्हारी एक भी मुस्कान पाने को कहूँ,<br />
दो सज़ा मुझको तुम्हारा नाम होठों से चुए<br />
हाथ भी मेरा तुम्हारी बादली वेणी छुए<br />
<br />
चढ़ चुका अपनत्व सब मेरा पराई धार पर,<br />
बिन बुलाए आ गया मैं फिर तुम्हारे द्वार पर।<br />
<br />
दो सज़ा मुझको कहूँ तुमसे मुझे बूझो तनिक<br />
वेदनाओं की विपुलता में तुम्हीं सूझे तनिक,<br />
दो सज़ा तुमसे तनिक भी शक्ति ले जीवित रहूँ<br />
यदि तुम्हारे आसरे दुख की तरंगों में बहूँ<br />
आँसुओं में भी कभी माँगू सहारा स्नेह का<br />
स्वप्न भी देखूँ तुम्हारी देवदुर्लभ देह का,<br />
मैं तुम्हें बाँधूँ तरसती चितवनों में निष्पलक<br />
दो सजा पीता रहूँ मधु स्वर तुम्हारा देर तक,<br />
<br />
गीत लिखने को तुम्हारे दर्प की दीवार पर,<br />
बिन बुलाए आ गया मैं फिर तुम्हारे द्वार पर।<br />
<br />
मूँद दो दोनों नयन, दम तोड़ दो मेरा अभी<br />
दो मुझे तुम दंड, है स्वीकार सिर माथे सभी,<br />
मैं तुम्हारे रूप का उन्माद तन-मन में भरे<br />
मैं तुम्हारी वज्रता का दर्द छाती में धरे,<br />
यदि तुम्हें पीने लगूँ अपनी समूची प्यास भर<br />
दो सजा मुझको - न सहने में रहे कोई कसर,<br />
दो सजा यदि मैं तुम्हारा मन बहुत-सा घेर लूँ<br />
दो सजा कुछ भी तुम्हारी मानता यदि फेर लूँ,<br />
<br />
पूजता तुमको सुलगता दिल इसी अधिकार पर,<br />
बिन बुलाए आ गया मैं फिर तुम्हारे द्वार पर। <br />
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