भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
"फिर सुन रहा हूँ गुज़रे ज़माने की चाप को / शकेब जलाली" के अवतरणों में अंतर
Kavita Kosh से
Pratishtha (चर्चा | योगदान) (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार= शकेब जलाली }} <poem> फिर सुन रहा हूँ गुज़रे ज़माने की...) |
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) |
||
(2 सदस्यों द्वारा किये गये बीच के 3 अवतरण नहीं दर्शाए गए) | |||
पंक्ति 3: | पंक्ति 3: | ||
|रचनाकार= शकेब जलाली | |रचनाकार= शकेब जलाली | ||
}} | }} | ||
+ | {{KKCatGhazal}} | ||
<poem> | <poem> | ||
फिर सुन रहा हूँ गुज़रे ज़माने की चाप को | फिर सुन रहा हूँ गुज़रे ज़माने की चाप को | ||
− | भूला हुआ था देर से | + | भूला हुआ था देर से मैं अपने आप को |
− | रहते हैं कुछ मलूल से चेहरे पड़ोस में | + | रहते हैं कुछ मलूल<ref>उदास |
− | इतना न तेज़ कीजिए | + | </ref> से चेहरे पड़ोस में |
− | + | इतना न तेज़ कीजिए ढोलक की थाप को | |
− | अश्कों की एक नहर थी जो | + | अश्कों की एक नहर थी जो ख़ुश्क हो गई |
− | क्यूँ कर मिटाऊँ दिल से तेरे | + | क्यूँ कर मिटाऊँ दिल से तेरे ग़म की छाप को |
कितना ही बे-किनार समंदर हो, फिर भी दोस्त | कितना ही बे-किनार समंदर हो, फिर भी दोस्त | ||
− | रहता है बे- | + | रहता है बे-क़रार नदी के मिलाप को |
पहले तो मेरी याद से आई हया उन्हें | पहले तो मेरी याद से आई हया उन्हें | ||
पंक्ति 22: | पंक्ति 23: | ||
तारीफ़ क्या हो कामत-ए-दिलदार की शकेब | तारीफ़ क्या हो कामत-ए-दिलदार की शकेब | ||
ताज्सीम कर दिया है किसी ने अलाप को | ताज्सीम कर दिया है किसी ने अलाप को | ||
+ | {{KKMeaning}} |
13:19, 19 नवम्बर 2012 के समय का अवतरण
फिर सुन रहा हूँ गुज़रे ज़माने की चाप को
भूला हुआ था देर से मैं अपने आप को
रहते हैं कुछ मलूल<ref>उदास
</ref> से चेहरे पड़ोस में
इतना न तेज़ कीजिए ढोलक की थाप को
अश्कों की एक नहर थी जो ख़ुश्क हो गई
क्यूँ कर मिटाऊँ दिल से तेरे ग़म की छाप को
कितना ही बे-किनार समंदर हो, फिर भी दोस्त
रहता है बे-क़रार नदी के मिलाप को
पहले तो मेरी याद से आई हया उन्हें
फिर आईने में चूम लिया अपने आपको
तारीफ़ क्या हो कामत-ए-दिलदार की शकेब
ताज्सीम कर दिया है किसी ने अलाप को
शब्दार्थ
<references/>