फिर सूरज ने शहर पे अपने क़हर का यूँ आगाज़ किया
जिन जिन के लम्बे दामन थे उन का इफ़्शा राज़ किया
ज़हर-ए-नसीहत तीर-ए-मलामत दरस-ए-हक़ीक़त सब ने दिए
एक वही था जिस ने मेरी हर आदत पे नाज़ किया
नक़्द-ए-तअल्लुक़ ख़ूब कमाया लेकिन ख़र्च अरे तौबा
ये तो बताओ कल की ख़ातिर क्या कुछ पस-अंदाज़ किया
शहर में इस कैफ़ियत का है कौन मुहर्रिक कुछ तो कहो
जिस कैफ़ियत ने तुम को दीवानों में मुमताज़ किया
कू-ए-मलामत के बाशिंदे तुम को सज्दा करते हैं
किस ने इस बस्ती में आख़िर ऐसे सर-अफ़राज किया
दहली में रहना है अगर तो तर्ज़-ए-मीर ज़रूरी है
उस ने भी तो इश्क़ किया फिर याँ रहना आग़ाज़ किया
पहले उड़ान की दावत थी ता-हद्द-ए-इम्कान ‘सिराज’
फिर जाने क्यूँ ख़ुद ही उसे ने क़तआ पर-ए-परवाज़ किया