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फिर हुनर-मंदों के घर से बे-बुनर / 'अर्श' सिद्दीक़ी

फिर हुनर-मंदों के घर से बे-बुनर जाता हूँ मैं
 तुम ख़बर बे-ज़ार हो अहल-ए-नज़र जाता हूँ मैं

 जेब में रख ली हैं क्यूँ तुम ने ज़ुबानें काट कर
 किस से अब ये अजनबी पूछे किधर जाता हूँ मैं

 हाँ मैं साया हूँ किसी शय का मगर ये भी तो देख
 गर तआक़ुब में न हो सूरज तो मर जाता हूँ मैं

 हाथ आँखों से उठा कर देख मुझ से कुछ न पूछ
 क्यूँ उफ़ुक पर फैलती सुब्हों से डर जाता हूँ मैं

 बस यूँही तनहा रहूँगा इस सफ़र में उम्र भर
 जिस तरफ़ कोई नहीं जाता उधर जाता हूँ मैं

 ख़ौफ़ की ये इंतिहा सदियों से आँखें बंद हैं
 शौक़ की ये अब्लही बे-बाल-ओ-पर जाता हूँ मैं

 'अर्श' रस्मों की पनह-गाहें भी अब सर पर नहीं
 और वहशी रास्तों पर बे-सिपर जाता हूँ मैं