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फुलसुंघी / श्रीप्रकाश शुक्ल

फुलसुँघी घोंसला बना रही है
लटकी हुई लता पर
अपना पता लिख रही है

सदी के तमाम महावृतान्तों को सुनते-गुनते
कई तरह की हवाई घोषणाओं के बीच
वह निकल पड़ी है
फूलों से
रस चिचोड़ने

बाहर सब कुछ बिखर गया है
फिर भी वह तिनका-तिनका बीन रही है
जिससे उसे छाजन बनाना है

गुज़रते हुए वैशाख के बादल बहुत जल्दी में हैं
आन्धियों के बीच छुपे हुए वे
आकाश को अपनी लपलपाती हुई तलवार से चीरते हुए
धरती को बार बार कँपा रहे हैं

एक निर्वात सा फैला है जीवन चहुँओर
ज़िन्दगी अवसाद की मानिन्द खिलखिला रही है
जिसमें सूखी हुई पत्तियों के बीच
उसने डेरा डाल दिया है

अब वह घेर कर बैठ गई है अपने हिस्से का आकाश
जिसमें दौड़ेगा एक नया जीवन
सभी विभाजित सीमाओं को ध्वस्त करता हुआ !