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फूटी थी निस्सार नदी / प्रेम भारद्वाज

फूटी थी निस्सार नदी
पतली सी इक धार नदी

छोड- अपना घर बार नदी
मानो भूत सवार नदी

कहती क्या मछली इसको
जिसकी थी सरकार नदी

उफने भी, पुल के नीचे
बहती आखिरकार नदी

बाँधोंगे तब निकलेगी
बिजली बन घर-द्वार नदी

हिम बादल बारिश कोहरा
सबका असली सार नदी

तोड़ेगी तटबंधों को
तब खोदेगी घार नदी

होना बादल फिर सागर से
प्रेम करे बेकार नदी