Last modified on 22 दिसम्बर 2011, at 11:39

फूल की लालसा / जगन्नाथप्रसाद 'मिलिंद'

विजय-वैजयंती माला के
बिखर चुके हों टूटे तार,
सूना गला देखकर पल-पल
तुझे चिढ़ाता हो संसार;
माँ, जिस दिन तू बिलख रही हो
खोकर अपना शुभ शृंगार,
लीन हो चुकी हो पीड़ा में
तेरी वीणा की झंकार;
उस दिन अकुलाकर, ठुकराकर
जीवन का सुख, हास-विलास,
ले बलिदान-धर्म की दीक्षा,
‘मर मिटने’ का ले सन्यास;
जो अपनी छाती छिदवालें
बनने को तव उर का हार,
उन फूलों का साथी बनकर
मैं भी निज जीवन दूँ वार!