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बंद दरावाज्जा / कविता भट्ट

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सूरज लिकड़दे ई
कदे खुलै था
पहाड़ी कान्नी
जो बन्द दरवाज्जा,
सात्थी दरवाज्जे तै
टुसकदे होए बोल्या-
भाई ! सुण तो
के अन्दाजा है थारा
मान्नै फेर के
कोई आकै खोल्लैगा
घर की दवाल्लाँ तै
के ईब कोई बोल्लेगा।
इस पै कई साल्लाँ तै
बन्द पड़ी एक खिड़की
अपणी सात्थन खिड़की की
सुन्नी आँखाँ मैं झाँक कै
अँधेरे मैं सुबकदी रोण लाग्गी,
इतने मैं भो होग्गी
दरवाज्जे बी चुपचाप सै
खिड़कियाँ बी हैं उदास
खुलण की नहीं बची आस,
पर सच कहूँ ! बेर नी क्यूं
इन सार्याँ नै है
हवा पै बिस्वास्।
लाग्गै है सुणैगी सिसकियाँ
पगडण्डियाँ तै उतरदी वा
पलटैगी रुख शायद ईब
धक्का दे कै
चरमरान्दे होए
पहाड़ी कान्नी फेर तै
खुलैगा-बन्द पड़्या दरवाज्जा
चरड़मरड़ के संगीत पै
झूम्मैगी फेर तै खिड़कियाँ
घाट्टी मैं गुन्जैंगी स्वर लहरियाँ
( अनुवाद: डॉ.उषा लाल )