भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

बंधा धागे से था फिर वो बेचारा मचल उट्ठा / गौतम राजरिशी

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

बंधा धागे से था फिर भी वो बेचारा मचल उट्ठा
उड़ी बाज़ू में इक तितली तो गुब्बारा मचल उट्ठा
 
हवा का ज़ोर था ऐसा, रिबन करता तो करता क्या
मनाया लाख ज़ुल्फ़ों ने, वो दोबारा मचल उट्ठा
 
उठाया सुब्‍ह ने पर्दा, तो ली खिड़की ने अंगड़ाई
गली के पार अधलेटा-सा ओसारा मचल उट्ठा
 
बजी घंटी, दुपट्टे खिलखिलाते क्लास से निकले
अचानक सूने-से कॉलेज का गलियारा मचल उट्ठा
 
बस इक ऊंगली छुयी थी चाय की प्याली पकड़ते वक़्त
न जाने क्यूँ समूचे जिस्म का पारा मचल उट्ठा
 
पुराना ख़त निकल आया, पुरानी फाइलों से जब
उठी ख़ुश्बू कि ऑफिस यक-ब-यक सारा मचल उट्ठा
 
छबीले चाँद ने बादल के चिलमन को उठाया यूँ
फ़लक पर ऊँघता बैठा हर इक तारा मचल उट्ठा
 
अकेली रात थी आधी, बुझा था बल्ब कमरे का
सुलगती याद यूँ चमकी कि अँधियारा मचल उट्ठा
 




(त्रैमासिक अर्बाबे-क़लम, अप्रैल-जून 2013)