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बक्खाली का समुद्र तट / राकेश कुमार पालीवाल


दूर दूर तक फैली
बेतरतीब रेत के विस्तार सा विराट
एक अजीब सा उदास उजाड पसरा है
बक्खाली के समुद्र तट पर
 
 लहरों मे वैसी उच्छ्ष्रंखलता नहीं है
जैसी दिखती है पश्चिम के तटों पर
 
यहां के पेडों की हरियाली भी
उतनी उददात नही जैसी दिखती है
केरल और गोवा के तटीय इलाकों में
 
अपने तमाम अभावों के बावजूद
चुम्बक सा खींचता है हमे
बक्खाली का समुद्र तट
 
यहां के सूरज की गरमाहट
यहां के शांत पानी की ठंडक
यहां के रेत और परिवेश की सादगी
सब कुछ अदभुत है अनूठा है
 
बक्खाली के समुद्र तट तक
बाजार के पैर नही पहुंचे अभी
यहां के प्राकृतिक सौंदर्य पर
बडे लोगों का कब्जा नहीं हुआ
 
 
दो तीन चाय की दुकानों के सामने बिछी
प्लास्टिक की चंद कुर्सी मेज और छतरियों के सिवा
सब कुछ प्राकृतिक है यहां की आबोहवा में
 
बक्खाली का बंगाल
अभी भी ताजा है
टैगोर की कविताओं सा
 
कलकत्ता की भीडभाड से दूर
बंग भूमि के इस सुदूर प्रदेश में
इस सदी मे भी कायम रहनी चाहिये
टैगोर की कविताओं जैसी प्रकृति की
आदिम गंध,ताजगी और शाश्वत उजास