भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

बग़ीचे में नौकर / ब्रजेश कृष्ण

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

इस बग़ीचे में रोज़ आता हूँ मैं
चिड़ियाँ/पेड़/पौधे/घास/और हवा
सभी जानते हैं मुझे इस तरह
जिस तरह मैं उन्हें जानता हूँ

कुछ लोग और भी आते हैं बग़ीचे में रोज़
मैं लोगों को जानता हूँ
और वे जानते हैं मुझे ठीक बग़ीचे की तरह

खु़शनुमा सुबह की सर्द हवा में
चुपचाप घुल जाती हैं
दुःख की लकीरें एक खेल की तरह
यहाँ उपस्थित सभी कुछ
एक हँसता हुआ-सा चेहरा है जाना पहचाना

एक नौकर भी आता है बग़ीचे में रोज़
यह उसकी नौकरी का हिस्सा है
दर्प के साथ वह घूम-घूम कर ढूँढ़ता है
बग़ीचे के सबसे सुन्दर फूल
उसे साहब की मेज़ पर ले जाना है बग़ीचा
जैसे कसाई के यहाँ ले जाया जाता है जानवर

नौकर के आने के बाद
एक-दूसरे से नज़रें चुराते हुए हम-
यानी चिड़ियाँ/पेड़/पौधे/घास/हवा/और लोग
डूब जाते हैं किसी अदृश्य में
और चेहरा विहीन हो जाता है बग़ीचा
खु़शनुमा और सर्द सुबह के बावजूद।