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बग़ैर साग़र ओ यार-ए-जवाँ नहीं गुज़रे / सिराजुद्दीन ज़फर

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बग़ैर साग़र ओ यार-ए-जवाँ नहीं गुज़रे
हमारी उम्र के दिन राएगाँ नहीं गुज़रे

हुजूम-ए-गुल में रहे हम हज़ार दस्त दराज़
सबा-नफ़स थे किसी पर गिराँ नहीं गुज़रे

नुमूद उन की भी दौर-ए-सुबू में थी कल रात
अभी जो दौर-ए-तह-ए-आसमाँ नहीं गुज़रे

नुकूश-ए-पा से हमारे उगे हैं लाला ओ गुल
रह-ए-बहार से हम बे-निशाँ नहीं गुज़रे

ग़लत है हम-नफ़सो उन का ज़िंदगी में शुमार
जो दिन ब-ख़िदमत-ए-पीर-ए-मुग़ाँ नहीं गुज़रे

‘ज़फ़र’ का मशरब-ए-रिंदी है इक जहाँ से अलग
मिरी निगाह से ऐसे जवाँ नहीं गुज़रे