Last modified on 20 नवम्बर 2013, at 21:57

बगैर उस के अब आराम भी नहीं आता / गुलाम मोहम्मद क़ासिर

सशुल्क योगदानकर्ता ३ (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 21:57, 20 नवम्बर 2013 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=गुलाम मोहम्मद क़ासिर }} {{KKCatGhazal}} <poem> ब...' के साथ नया पन्ना बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

बगैर उस के अब आराम भी नहीं आता
वो शख्स जिस का मुझे नाम भी नहीं आता

उसी की शक्ल मुझे चाँद में नजर आए
वो माह-रूख जो लब-ए-बाम भी नहीं आता

करूँगा क्या जो मोहब्बत में हो गया ना-काम
मुझे तो और कोई काम भी नहीं आता

बिठा दिया मुझे दरिया के उस किनारे पर
जिधर हुबाब तही-जाम भी नहीं आता

चुरा के ख्वाब वो आँखों को रहन रखता है
और उस के सर कोई इल्जाम भी नहीं आता