भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

बचपन / मनोज श्रीवास्तव

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज


बचपन
 

दर्पण से बाहर
मैं हूँ मनहर,
दर्पण से बाहर
संजोए हुए हूँ
मन के कोने में
चुनमुन बचपन
औंधे-मुंह
किलक-किलक
विहंस-विहंस
धूप और बारिश से
हवा और आतिश से
निरापद, नि:संकोच,
खेल रहा है
कंचे की गोली
डंडा और गुल्ली
लुका-छिपी
संग बच्चे--हमजोली
करते अठखेली.