भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

बचा ही क्या है हयात में अब सुनहरे दिन तो निपट गए हैं / 'अना' क़ासमी

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

बचा ही क्या है हयात में अब सुनहरे दिन तो निपट गए हैं
यही ठिकाने के चार दिन थे सो तेरी हां हूं में कट गए हैं

हयात ही थी सो बच गया हूँ वगरना सब खेल हो चुका था
तुम्हारे तीरों ने कब ख़ता की हमीं निशाने से हट गए हैं

हरेक जानिब से सोच कर ही चढ़ाई जाती हैं आस्तीनें
वो हाथ लम्बे थे इस क़दर के हमारे क़द ही सिमट गए हैं

हमारे पुरखों की ये हवेली अजीब क़ब्रों-सी हो गई है
थे मेरे हिस्से में तीन कमरे जो आठ बेटों में बट गए हैं

मुहब्बतों की वो मंज़िलें हों, के जाहो-हशमत की मसनदें हों
कभी वहाँ फिर न मुड़ के देखा क़दम जहाँ से पलट गए हैं

बड़े परीशा हैं ऐ मुहासिब तिरे हिसाबो-किताब से हम
किसे बताएँ ये अलमिया अब, कि ज़र्ब देने पे घट गए हैं

मैं आज खुल कर जो रो लिया हूँ तो साफ़ दिखने लगे हैं मंज़र
ग़मों की बरसात हो चुकी है वो अब्र आँखों से छँट गए हैं

वही नहीं एक ताज़ा दुश्मन, सभी को मिर्ची लगी हुई है
हमें क्या अपना बनाया तुमने, कई नज़र में खटक गए हैं