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बच्ची की भी देह होती है / रूपम मिश्र

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तुमने जब-जब कहा — तुम बच्ची हो !
मैं सच में बच्ची बन गई !
याद ही नहीं रहा कि मेरी कोई देह भी है
जो इतनी मादक है
कि तुम्हें बेचैन कर रही है !

पर, सच कहती हूँ
वो इतना कोमल सम्बोधन था
कि मैं उसे सुनकर गिलहरी बन
तुम्हारी देह पर उचकने लगी थी !

तुम्हारे माथे को पहाड़ बना लिया,
सीने को दरिया
और दोनों आँखों को चाँद और सूरज !

तुम्हें ये पता ही नहीं था
कि तुम्हारे वजूद में
मैंने एक नई दुनिया बसा ली थी

एक दिन तुमने कहा — कितना अछल है तुम्हारा स्पर्श !
तुम नहीं जानते
उस समय मेरी हथेलियाँ बहुत नाज़ुक हो गई थीं
जिनसे मैं तुम्हारी आँखें बन्द करके छुप जाती

फिर एक दिन तुमने कसकर पकड़ लिया मेरा हाथ
जिससे पड़ गए कलाई पर स्याह घेरे !

ख़ैर, अब मुझे नहीं याद रहता
मैं कभी बच्ची बन जाती थी !
और तुम्हारे साथ पहरों खिलखिलाती
छुपम -छुपाई खेलती
मुठ्ठी भर-भर के अंजोरिया तुम्हारे ऊपर फेंकती !

क्योंकि जिसने मुझे बच्ची कहा था
जब उसे ही नहीं याद रहा कि मैं बच्ची हूँ !
स्मृतियों ने मुझे हमेशा दिवालिया रखा
मुझे याद ही नहीं रहा
कि बच्ची की भी देह होती है
और देहों की आदिम भूख होती है ।