भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

बच्चे और बड़े / बालस्वरूप राही

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

सोचा करते है हम बच्चे
क्या रक्खा है बचपन में।
शीघ्र बड़े हो जाएँ हम भी
चाह यही रहती मन में।

हम भी रोब जमाएँ सब पर
मूँछें रह कर बड़ी बड़ी ,
ओवरकोट पहन कर घूमें
लिए हाथ में एक छड़ी।

किन्तु बड़ों की चाह यही है
फिर से बच्चे बन जाएँ,
मूँगफली भर कर ज़ेबो में
जहां मिले मौका, खाएँ।

यह सब गड़बड़झाला क्या है,
आखिर कौन बताएगा?
बच्चे होंगे बड़े, बड़ों को
बच्चा कौन बनाएगा?