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बजाय आत्महत्या के / विजय चोरमारे / टीकम शेखावत

जहाँ रोना चाहिए था फूट-फूटकर
छाती फटने तक
ऐसी कितनी ही जगह छूट गईं पीछे
और
अब अचानक ही क्यों
घिरने लगे हैं बादल चारों ओर
इतने कैसे हो गए ख़ुदगर्ज़, आत्मलीन
कि जब बम फूटते हैं अगल-बगल
तो कनपट्टी नहीं फटती
या कलेजा नहीं दहलता
मौत के द्वार पर भी
बढ़ती रहती है बैचैनी और बस बैचेनी
ट्रैफ़िक जाम का गतिरोध घण्टों ख़त्म ही नहीं होता
‘नम्बर विच यू हेव डायल्ड इज़ नॉट रीचेबल’

दरअसल कहाँ से हुई शुरुआत?
किस आवाज़ ने कलेजे को थामा
सही जगह को खोजते हुए
और उलझती जाती है गुत्थी
‘यू आर ऑलवेज वेलकम बाय मी’
खोखले शब्द, अन्त में केवल हवा
बन्दरिया और उसके बच्चो की कहानी की तरह
अन्तिम सत्य को कितना ही अस्वीकार करो, तब भी
अपनी नौका का सुराख़ हमें ही बन्द करना होता है,
नहीं तो निश्चित हैं मृत्यु डूबकर मँझदार में

जहाँ अँकुरित हो सकेंगे
पनप सकेंगी नई कोंपले
ऐसी सत्त्वशील मिट्टी कहाँ मिलेगी?
रासायनिक खाद की भरमार है चारों ओर
और बीज भी है हायब्रीड
माटी बुवाई ही करने नहीं देती
अपनी बाँझ कोख में
पेस्टीसाइड व केमिकल के क़र्ज़ से फूटते है रास्ते अनन्त
ऐसे में
सच्चे किसान के पास
कुएँ में डूबने के अलावा नहीं है कोई और चारा
जो है आधा अधूरा, अपने ही हाथो से खोदा हुआ
कहाँ से शुरू होता हैं दरअसल यह सफ़र
आत्महत्या से आत्महत्या की ओर जाता हुआ?
भीतर से ढहते हुए
कहीं भी रोक नहीं पाते यह ढहना, जाने क्यों

नहीं सम्भाला जाता सम्वेदनाओं से तर यह आकाश
नहीं भगाते बनता सिर के ऊपर का चाँद पूनम का
नहीं रोक सकते ह्रदय की तरंगे
ऐसे पतझड़ में
साथ क्यों नहीं होता कोई रिश्ता?

बाहर से यह इमारत दिखती है चमकीली,
रंग रोगन की हुई
ठण्ड-गर्मी में भी टिकेंगे, गारण्टीशुदा हैं रंग
भीतर से यह कब ढह जाएगी
इसका कोई भरोसा नही !

ये हाथ की मेहन्दी सुन्दर
उसी की तरह नक़्शदार
नदी और समन्दर भी हैं उसी की तरह एकदम साफ़-सुथरे
जिसमे देख सकूँ अपना अक़्स साफ़-साफ़
क्या किसी के स्पर्श मात्र से इतनी खिल जाती है मेहन्दी?
यह माजरा ही अजीब है
मेहन्दी का, नदी का, समुद्र का, खारे पानी का
नयनों की धाराओं का, चिट्ठियों का, चिट्ठियों की स्याही का

जारी रहती हैं रात-बेरात भी ख़तों की फड़फड़ाहट
भीतर ही भीतर
जो लिख न सके ऐसे ख़तों का बन जाएगा एक गट्ठर
पढ़ने के लिए उन्हें यह जन्म भी पड़ जाएगा कम
बार-बार जन्म लेना होगा
क़समें खानी होगी झूठ-मूठ की
ठानकर बिखेरना चाहो तब भी
कैलकुलेशन होते हैं हर किसी के अपने अपने

‘मैं भूल जाऊ तुम्हें यही मुनासिब है
मगर भूलना भी चाहू तो किस तरह भूलूँ
कि तुम तो फिर भी हक़ीक़त हो कोई, ख़्वाब नहीं’

व्यक्तिगत भावनाओं को
देकर सामाजिक सन्दर्भ, क्या हासिल होता है भला कविता से?

आत्महत्या तो आत्महत्या ही होती है हर समय
आत्महत्या से नहीं मिलती शहादत
जीने जितना आसान कुछ भी नहीं होता
जीने जितना मुश्किल भी नहीं होता कुछ
आत्महत्या के मुक़ाबले कोई नया रास्ता खोजना होगा

वैसे कुछ भी बहुत मुश्किल नहीं होता
सिर्फ़ तय करना होगा कि इस दिल का क्या करें।

मूल मराठी से अनुवाद — टीकम शेखावत