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बजा है हम ज़रूरत से ज़ियादा चाहते हैं / रियाज़ मजीद

बजा है हम ज़रूरत से ज़ियादा चाहते हैं
मगर ये देख सब कुछ बे-इरादा चाहते हैं

बहुत दिल-तंग हैं गुंजाइश-ए-मौजूद से हम
रह-ए-इम्काँ कुशादा से कुशादा चाहते हैं

पुरानी है नुमू-आसार है फिर भी ये मिट्टी
बदन से और अभी कुछ इस्तिफ़ादा चाहते हैं

सवार आते नहीं हैं लौट कर जिन घाटियों से
सफ़र इस खोंट का इक पा-प्यादा चाहते हैं

बहुत बे-ज़ार हैं अशराफ़िया की रहबरी से
कोई इंसान कोई ख़ाक-ज़ादा चाहते ळैं

कोई इज़हार-आमादा है दिल की धड़कनों में
हम उस के वास्ते इक लहन-ए-सादा चाहते हैं

जो हो मक़्बूल उस की बारगाह-ए-हक़-अदा में
वो इक लम्हा ‘रियाज़’ आधे से आधा चाहते हैं