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बड़ा याद आता है बन के प्रवासी / शार्दुला नोगजा

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पेड़ों के झुरमुट से छन के जो आती
धवल धूप क्या याद मुझ को दिलाती
हरे खेतों की जो मड़ैया से जाता
थका-हारा राही मधुर गीत गाता

चूड़ा-दही-खाजा और कुछ बराती
अनब्याही दीदी मधुर सुर में गातीं
अभी दाई गोबर की थपली थपेगी
माँ भंसाघर में जा पूये तलेगी

सिल-बट्टे पे चटनी पीसे सुनयना
"किसी ने निकाला जो देना है बायना?"
"अभी लीपा है घर!", उफ! बड़के भईया
चिल्ला रहे पर्स खोंसे रुपैया

आँधी में दादी हैं छ्प्पर जुड़ातीं
भागे हम झटपट गिरें आम गाछी
वो मामू का तगड़ा कंधा सुहाना
जिस पे था झूला नम्बर से खाना।

बड़ा याद आता है बन के प्रवासी
नमक-तेल-मिर्ची और रोटी बासी।

०९ अक्तूबर ०८