Last modified on 21 अक्टूबर 2016, at 04:02

बड़ी रे विपतिया रे हंसा, नहिरा गँवाइल रे / कबीर

Lalit Kumar (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 04:02, 21 अक्टूबर 2016 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=कबीर |अनुवादक= |संग्रह= }} {{KKCatAngikaRachna}} {{KK...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

॥निर्गुण॥

बड़ी रे विपतिया रे हंसा, नहिरा गँवाइल रे।
नाहिं करलाँ कछुवे हम रे दान से,
बन्धनवाँ सेहो रे खोलिये लेलकै रे॥बड़ी रे.॥
मैया मोरी रोबै रे हंसा, रोबै छै बहिनियाँ रे हो,
रोबै छै नगरिया केरो हो लोग।
सुन्दरी सिर धुनि-धुनि रोबै छै रे॥बड़ी रे.॥
भवजल नदिया रे हंसा, लागै छै भयावह रे,
कौनी विधि उतरब हम रे पार।
रे जाइब आपन घरवा रे॥बड़ी रे.॥
गुरु के शब्द रे हंसा, गठरी बनैबै रे,
कि वही चढ़ी उतरब रे पार।
रे जाइब आपन घरवा रे॥बड़ी रे.॥
साहेब कबीर रे हंसा, गाबै छै निरगुनियाँ रे।
कि संतो जन लेहो न विचार रे॥बड़ी रे.॥