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बड़े अज़ीब मकाँ उम्र भी दिखाती है / डी. एम. मिश्र

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बड़े अज़ीब मकाँ उम्र भी दिखाती है
हज़ार आँसुओं से जिंदगी रूलाती है।

खड़े दरख़्त मगर घूमती हुई छाया
कभी करीब, कभी दूर-दूर जाती है।

कभी सफ़र न रूका साथ के लिए फिर भी
कभी उम्मीद, कभी दोस्ती रूलाती है।

सुबह से शाम तलक सिर्फ़ खेाजता फिरता
फिर भी मंजिल मेरी कहीं नज़र न आती है।

कभी गुनाह लगे तो कभी सवाब लगे
एक पानी पे नदी कौन ठहर पाती है।