भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

बदन पहले कभी छिलता नहीं था / विकास शर्मा 'राज़'

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

बदन पहले कभी छिलता नहीं था
हवा का लम्स तो ऐसा नहीं था

तुम्हारी मुस्कुराहट को हुआ क्या
ये परचम तो कभी झुकता नहीं था

चलो अच्छा हुआ डूबा वो सूरज
कहीं भी रौशनी करता नहीं था

ये दरिया पहले भी बहता था लेकिन
किनारे तोड़ कर बहता नहीं था